हमारे पूर्वजों का जीवन कठिन था , हमारा जीवन जटिल है…!
मेरी मां जीवन के अंतिम वर्षों में अकेलेपन ,निरर्थकता बोध और स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद यदि लगभग खुश रहीं तो उसकी एकमात्र वजह ईश्वर में उनकी अगाध श्रद्धा और पूजा-पाठ के विस्तृत सिलसिले थे । हमारे घर में एक बहुत सुंदर मंदिर था , जिसमें वे सुबह लगभग तीन घंटे की विस्तृत और शाम को एक घंटे की संक्षिप्त पूजा करती थीं । इस कर्मकांड में सभी भगवानों को नहलाने , धुलाने ,श्रृंगार करने , भोग लगाने के अलावा एक लंबी बातचीत भी शामिल थी । वे अपने दिन भर के दुख दर्द दुर्गा माता को सुनातीं । अपने नाती पोतों की सफलता के लिए आवेदन देतीं , कुछ अच्छा हो रहा था तो उसके लिए उन्हें धन्यवाद देतीं , जब मन का नहीं होता , तो उलाहने देतीं , झगड़ा करतीं । नास्तिक होने के बावजूद मुझे यह कार्यक्रम मनमोहक लगता था , और मैं अक्सर उसमें शामिल होता । उनके साथ मजाक करता – “अम्मा वह बिजनेस डील नहीं हो रही है जिसके लिए मैंने तुमसे दुर्गा माता को बोलने के लिए कहा था एक बार फिर से उन्हें याद दिलाओ ..” !ईश्वर के साथ उनके रिश्ते ने उन्हें उदासी और डिप्रेशन से बचाए रखा । वे एक किस्म की सार्थकता महसूस करती थीं । उन्हें राहत मिलती थी कि इस तनहा दुनिया में कोई है जो उन्हें बिना शर्त प्यार करता है ,जिससे वे अपने मन का कह सकती हैं,और जो उन्हें दुनिया की हर मुश्किल से आखिरकार बचा लाएगा।
मैं कभी सोच कर सिहर उठता हूं , यदि वह मंदिर , पूजा पाठ और ईश्वर में उनकी आस्था नहीं होती तो उनका बुढ़ापा कैसे कटता ।अकेले और निरुद्देश्य जीवन से उपजी कड़वाहट से वे और आखिरकार पूरा परिवार किस तरह प्रभावित होता ।
अब जब मैं भी धीरे-धीरे बूढा हो रहा हूं मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि बहुत जल्दी ही मुझे भी उन्ही समस्याओं से दो-चार होना पड़ेगा और मुश्किल यह हो जाएगी कि इस लड़ाई में ‘आस्था’ नाम का वह हथियार मेरे पास नहीं होगा जो मेरी मां के पास था ।
मेरी मां भोली थी , मैं भी भोला होना चाहता हूं , मगर यह एकतरफा सफर है , लौटना मुश्किल है ।
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि आस्थावान लोगों का मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य बेहतर होता है ।मुश्किल यह है कि विज्ञान ने हमसे आस्था के पुराने आधार छीन लिए पर नए नहीं दिए ! ना ही अस्तित्व से जुड़े बड़े सवालों के कोई संतोषप्रद जवाब दिए ।अविश्वासी लोग उन तीन प्रश्नों से लगातार जूझते हैं जो आस्थावान लोगों की समस्या नहीं रहे ।पहला – ब्रह्मांड कैसे बना ? , दूसरा- मृत्यु के बाद हम कहां जाते हैं ? और तीसरा दुनिया में इतना दुख क्यों है ? मेरी मां के पास इन तीनों सवालों के आसान उत्तर थे । ब्रह्मांड भगवान ने बनाया , मृत्यु के बाद भगवान से हमारा मिलन हो जाता है , और दुख पिछले जन्मों का कर्मफल है ।
मुझे जब भी मृत्यु का ख्याल आता है , ये सोच कर डर के अलावा बड़ा दुख होता है कि यह भरी पूरी दुनिया ,परिवार यह सब यहीं होगा और मैं कहीं नहीं रहूंगा । पर मेरी मां इस दुख से भी आज़ाद थीं, वे कहती थीं- मैं मरने के बाद जल्दी ही तेरे घर तेरी पोती बनकर आ जाऊंगी । आस्थाएं कितनी राहत देने वाली है और विज्ञान कितना पीड़ादायक…!
इन दिनों मानवतावाद में यकीन रखने वाले लोग बहस कर रहे हैं कि यदि खुश रहना है तो ईश्वर में नहीं तो किसी और सिद्धांत या प्रतीकों में अपनी आस्था रखनी ही होगी ।
पर वे नए प्रतीक क्या हों ?
मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि अस्तित्वगत प्रश्नों से जूझने के लिए आप कुछ आसान झूठ गढ़ें । भीतर से यह जानते हुए भी कि ये पूरे सच नहीं है फिर भी उन पर यकीन करें । उदाहरण के लिए यह सोच कर खुश हो जाएं कि हमारे शरीर के तत्व मृत्यु के बाद हमारे घर के बगीचे में फूल बनकर खिलेंगे , या हम एक स्मृति में बदल जाएंगे जो हमारे पूर्वजों के साथ मिल कर हमारे आने वाली पीढ़ीयों के दिल दिमाग में बनी रहेगी ।
या ब्रम्हांड एक बहता हुआ झरना है और हम खुशनसीब हैं कि इस प्रवाह के साक्षी हैं ।
झूठ जिंदगी के लिए , खुशी के लिए जरूरी है । मगर क्या यह संभव है कि दिमाग का एक हिस्सा जानता रहे यह झूठ है और दूसरा हिस्सा उसे फिर भी सच माने । हर कोई ग़ालिब तो नहीं हो सकता जो कहे – हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन / दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है ।
ध्यान दीजिए ग़ालिब ने दिल कहा , दिमाग नहीं । असली समस्या तो दिमाग की ही है । दिमाग का क्या किया जाय ?