मन की मलीनता को धोने के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक है। दृष्टिकोण और विचार प्रायः वहीं जमे रहते हैं हमारे मस्तिष्क में, जो कि बहुत दिनों से पारिवारिक और अपने मित्रों के सान्निध्य में हमने सीखे और जाने।
अब हमको श्रेष्ठ विचार अपने भीतर धारण करने के लिए श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करना चाहिए। चारों ओर हम जिस वातावरण से घिरे हुए हैं, वह हमको नीचे की ओर गिराता है।
पानी का स्वभाव नीचे गिरने की तरफ होता है। हमारा स्वाभाविक स्वभाव ही ऐसा होता है, जो नीचे स्तर के कामों की तरफ, निकृष्ट उद्देश्यों के लिए आसानी से लुढ़क जाता है।
चारों तरफ का वातावरण जिसमें हमारे कुटुम्बी भी शामिल हैं, मित्र भी शामिल हैं, घरवाले भी शामिल हैं, हमेशा इस बात के लिए दबाव डालते हैं कि हमको किसी भी प्रकार से किसी भी कीमत पर भौतिक सफलताएँ पा लेनी चाहिए। चाहे उसके लिए नीति बरतनी पडे़ अथवा अनीति का आश्रय लेना पडे़। हर जगह से यही शिक्षण हमको मिलता है।
सारे वातावरण में इसी तरह की हवा फैली हुई है और यही गन्दगी हमें प्रभावित करती है। हमारी गिरावट के लिए काफी वातावरण विद्यमान है।
इनका मुकाबला करने के लिए क्या करना चाहिए ? श्रेष्ठता के मार्ग पर अगर हमको चलना है, आत्मोत्कर्ष करना है, तो हमारे पास ऐसी शक्ति भी होनी चाहिए, जो पतन की ओर घसीट ले जाने वाली इन सत्ताओं का मुकाबला कर सके।
इसके लिए एक तरीका है कि हम श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ में सम्पर्क और सान्निध्य बनाए रखें, उनके सत्संग को कायम रखें। यह सत्संग कैसे हो सकता है ?
यह सत्संग केवल पुस्तकों के माध्यम से सम्भव है, क्योंकि विचारशील व्यक्ति हर समय बातचीत करने के लिए मिल नहीं सकते।
इनमें से बहुत तो ऐसे होते हैं, जो स्वर्गवासी हो चुके हैं और जो जीवित हैं, वे हमसे इतनी दूर रहते हैं कि उनके पास जाकर के हम उनसे बातचीत करना चाहें तो वह भी कठिन है।
हम जा नहीं सकते और उनके पास जाएँ भी तो क्या उनके लिए भी कठिन है, क्योंकि प्रत्येक महापुरुष समय की कीमत को समझता और व्यस्त रहता है। ऐसी हालत में हम लगातार सत्संग कैसे कर पाएँगे ? कभी साल-दो-साल में एक-आध घण्टे का सत्संग कर लिया तो क्या उससे हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा ?
इसलिए अच्छा तरीका यही है कि हम अपने जीवन में नियमित रूप से जैसे अपने कुटुम्बी और मित्रों से बात करते हैं, श्रेष्ठ महामानवों से, युग के मनीषियों से बातचीत करने के लिए समय निकालें। समय निकालने की इस प्रक्रिया का नाम है – स्वाध्याय।
स्वाध्याय को आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक माना गया है।
स्वाध्याय के बारे में शास्त्रों में कहा गया है – जिस दिन विचारशील आदमी स्वाध्याय नहीं करता उस दिन उसकी संज्ञा चाण्डाल जैसी हो जाती है।
स्वाध्याय का महत्त्व भजन से किसी भी प्रकार से कम नहीं है। भजन का उद्देश्य भी यही है कि हमारे विचारों का परिष्कार हो और हम श्रेष्ठ व्यक्तित्व की ओर आगे बढे़ं। स्वाध्याय हमारे लिए आवश्यक है।
स्वाध्याय से हम महापुरुषों को अपना मित्र बना सकते हैं और जब भी जरूरत पड़ती है, तब उनसे खुले मन से, खुले दिल से बातचीत कर सकते हैं।
जिस तरीके से शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान करना आवश्यक है, कपडे़ धोना आवश्यक है, उसी प्रकार से स्वाध्याय के द्वारा, श्रेष्ठ विचारों के द्वारा अपने मन के ऊपर जमने वाले कषाय-कल्मषों को, मलीनता को धोना आवश्यक है।
स्वाध्याय से हमको प्रेरणा मिलती हैं, दिशाएँ मिलती हैं, मार्गदर्शन मिलता है, श्रेष्ठ पुरुष हमारे सान्निध्य में आते हैं और हमको अपने मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं, मार्गदर्शन करते हैं।
ये सारी की सारी आवश्यकताएँ स्वाध्याय से पूरी होती हैं। इसलिए स्वाध्याय का साधना और भजन के बराबर ही मूल्य और महत्त्व समझा जाना चाहिए।