शरीर के कई अंगों की सुचारु कार्य प्रणाली के लिये विटामिन-ई आवश्यक है, जैसे कि त्वचा व नेत्रों के लिये। यह एक एण्टिआक्सिडेण्ट भी है अर्थात् यह कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने की प्रक्रिया को धीमा करता है। विटामिन-ई मजबूत रोग-प्रतिरोधक प्रणाली के भी लिये महत्त्वपूर्ण है.
1. त्वचा में नमी बनाये रखना –
त्वचा में नमी बनाये रखने में नैसर्गिक Vitamin – E की भूमिका रहती हे जिस कारण कृत्रिम रूप से मास्च्युराइज़र व त्वचा में लगाये जाने के लिये बनाये जाने वाले तैलों में विटामिन-ई को सिंथेटिक रूप में मिलाया जाता है एवं सूखी त्वचा से व पपड़ी बनकर बिखर रही त्वचा से बचाव अथवा उपचार का दावा किया जाता है।
2. खुजली कम करना –
विटामिन-ई एलर्जिक रिएक्शन का उपचार नहीं कर सकता, न ही संक्रमण अथवा त्वचा में खुजली सम्बन्धी अन्य स्थितियों का किन्तु इतना अवश्य है कि नमी रहने से त्वचा सूखने से उपजी खुजली जैसी समस्याओं से तात्कालिक रूप से कुछ आराम मिलता अनुभव होता हो किन्तु नमी लाने अथवा त्वचा में तैल के रूप में लगायी जा सकने वाली हर वस्तु में ऐसा प्रभाव लग सकता है।
इसी प्रकार एग्ज़िमा में विटामिन-ई के कारण त्वचा के सूखेपन में कमी आ सकती है जिससे सूजन कुछ कम लग सकती है किन्तु इसका मुख्य कारण यह कि कम खुजलाने से सूजन कम ही आयेगी. इसी कारण सोरायसिस के लक्षणों को कम करने में भी विटामिन-ई कुछ प्रभावी लग सकता है।
झुर्रियाँ नम त्वचा में कम दिखती हैं, इस कारण ऐसा लग सकता है कि विटामिन-ई युक्त तैल लगाने से झुर्रियाँ कम पड़ रही हों। लू अथवा तेज धूप से त्वचा झुलसने के प्रभाव कम दिखने का दावा भी विटामिन-ई का सेवन करने के सन्दर्भ में किया जाता रहा है।
3. घाव भरना –
कुछ अनुसंधानों में ऐसा पाया गया है कि विटामिन-ई से घाव भरने को गति मिल सकती है परन्तु त्वचा पर विटामिन-ई को अलग से लगाने से भी ऐसा प्रभाव पड़ने के विषय में संदेह है। कुछ शोधों में ऐसा देखा गया है कि विटामिन-ई को त्वचा पर लगाने अथवा कृत्रिम रूप में खाने से क्षतिग्रस्त ऊतकों के निशान मिटने की गति धीमी हो जाये, त्वचा में एलर्जीज़ भी सम्भव।
4. त्वचा-कैन्सर से बचाव –
त्वचा के कैन्सर से बचने में विटामिन-ई की भूमिका पायी जाने का अनुमान है परन्तु तैल अथवा क्रीम के रूप में लगाने पर ऐसा प्रभाव संशयास्पद है।
5. नखरों के नखरे –
विटामिन-ई युक्त नैसर्गिक खाद्य-पदार्थों के सेवन से यल्लो नैल-सिण्ड्राम से बचाव प्रदर्शित हुआ है जिसमें नाख़ून पीले पड़ने लगते हैं एवं चटखने लगते हैं। वैसे यहाँ भी इसका मुख्य कारण नमी को बताया जाता रहा है क्योंकि त्वचा में नमी अधिक बनी रहे नाख़ून टूटने की आशंका वैसे ही कम हो जाती है।
विटामिन-ई की कमी
इस विटामिन की कमी बहुत ही कम देखी गयी है, जैसे
1. कुछ आनुवांशिक विकारों में.
2. बहुत कम जन्मभार के नवजातों में.
3. पाचन-समस्याओं से ग्रसित लोगों में भी विटामिन-ई की कमी की आशंका रहती है, जैसे कि अग्न्याशय शोथ, सेलियक बीमारी अथवा सिस्टिक फ़ाइब्रोसिस में विटामिन-ई शरीर में पर्याप्त परिमाण में अवशोषित न हो पाने से इसकी कमी हो सकती है.
4. वायु-प्रदूषण.
5. धूम्रपान.
6. आहार में वसा का सेवन बहुत कम करने वाले व्यक्तियों में भी विटामिन-ई का स्तर कम हो सकता है.
विटामिन – ई की कमी के लक्षण
*. रेटिनोपॅथी – नेत्रों की रेटिना को क्षति होने से दृष्टि पर प्रभाव पड़ सकता है
*. पेरिफ़ेरल न्यूरोपेथी – परिधीय तन्त्रिकाओं को क्षति, विशेष तौर पर हाथ-पैरों में जिससे कमज़ोरी अथवा दर्द की अनुभूति
*. गतिविभ्रम (एटॅक्सिया – जिसमें शारीरिक गतियाँ अनियन्त्रणीय लग सकती हैं)
*. प्रतिरक्षा – तन्त्र के सुचारु कार्यों में व्यवधान
विटामिन – ई के स्रोत
विटामिन-ई संतुलित आहार, फल-सब्जियों, साबुत व मोटे अनाजों में प्रचुर मात्रा में मिल जाता है मुख्यतया –
1. वनस्पति-तैल (प्रधानतया सूर्यमुखी, कुसुम, केनोला, जैतून व सोयाबीन का तैल)
2. पालक, चुकंदर की पत्तियाँ इत्यादि हरी पत्तेदार सब्जियाँ
3. गिरियाँ (नट्स) – जैसे बादाम
4. बीज (मुख्यत: सूर्यमुखी के बीज)
5. गेहूँ के जवारे
6. मूँगफली
7. आम
8. कद्दू
9. लाल शिमला मिर्च
10. फ़ोर्टिफ़ाईड धान्य – आजकल कारखाने भेजकर लायी गयी कुछ खाद्य-सामग्रियों का फ़ोर्टिफ़िकेशन कराया जाता है जिसका तात्पर्य है कि उनमें कुछ पोषक तत्त्वों का कृत्रिम रूप से समावेश जो या तो उनमें पहले से ही कम हों अथवा प्रोसेसिंग के दौरान घट गये हों।
सप्लिमेण्ट के रूप में विटामिन-ई से हानियाँ
1. हीमोरेजिक स्ट्राक का आशंका
2. रक्तस्राव (विशेष रूप से शल्यक्रिया के पहले, दौरान व बाद में विटामिन-ई के सप्लिमेण्ट्स से विशेष दूरी बरतने को कहा जाता है). थक्का जमाने के लिये व ख़ून बहना रोकने के लिये सेवन किये जा रहे एण्टि-काएगुलेण्ट्स व एण्टि-प्लेटलेट ड्रग्स सहित कई जड़ी-बूटियों व सप्लिमेण्ट्स के साथ यदि विटामिन-ई सप्लिमेण्ट का सेवन कर लिया जाये तो रक्तस्राव की आशंका और बढ़ सकती है।
3. हृद्वाहिकागत (कार्डियोवॅस्क्युलर) समस्याओं सहित मधुमेह के रोगियों में हृदयाघात् व सम्बन्धित जटिलताओं के कारण हृद्-वैफल्य (हार्ट-फ़ॅल्योर) का जोख़िम हो सकता है।
4. गर्भावस्था में विटामिन-ई सप्लिमेण्ट लेने से गर्भस्थ शिशु में जन्मजात् हृदय-विकारों का जोख़िम उत्पन्न हो सकता है।
5. मल्टिविटामिन सप्लिमेण्ट्स के सेवन से जुड़े अध्ययनों में भी पाया गया है कि प्रोस्टेट-कैन्सर होने का जोख़िम बढ़ गया।
6. मितली
7. दस्त
8. पेट में ऐंठन
9. सिरदर्द
10. धुँधली दृष्टि – रेटिनाइटिस पिग्मेण्टोसा हो जाने से रेटिना को क्षति सम्भव
11. थकान
12. विटामिन-ई को त्वचा पर लगाने से विक्षोभ (इरिटेशन) अथवा चकत्ते सम्भव
13. जनन सम्बन्धी हार्मोन्स के स्रावण में कमी या अन्य कोई विकृति
14. मूत्र में क्रियेटिनिन का सान्द्रण बढ़ना (क्रियेटिन्यूरिया) – यह स्थिति माँसभक्षियों में और बढ़ सकती है क्योंकि उनके शरीर में क्रियेटिनिन व सम्बन्धित अन्य अपशिष्ट पदार्थ अधिक बनते हैं
15. विटामिन – के की कमी हो सकती है
16. सिर व गर्दन के कैन्सर की आशंका
17. यकृतरोग पनपना
18. ख़ून पतला करने वाली या अन्य दवाइयों का सेवन कर रहे लोगों को तो यदि विटामिन-ई सप्लिमेण्ट चिकित्सक स्वयं लिखे तो उसे भी अपनी सम्पूर्ण वस्तु स्थिति स्पष्ट कर देनी चाहिए कि मेरे द्वारा कौन-कौन-सी दवाइयाँ ली जा रहीं ली जाती रही हैं।
विटामिन-ई पर विरोधाभास
प्रोस्टेट-कैन्सर इत्यादि स्थितियों में अन्य कृत्रिम सप्लिमेण्ट्स जैसे विटामिन-ई सप्लिमेण्ट्स के प्रभावों में भी विरोधाभास पाये गये हैं. हो सकता है कि स्थिति में कुछ सुधार हो, सम्भव है कि सम्बन्धी प्रभाव न पड़े, हो सकता है कि स्थिति और बिगड़ जाये।
धमनियों अथवा खून के थक्के जम जाने या एंजियोप्लास्टी जैसे रुधिर-प्रवाह सम्बन्धी मामलों में विटामिन-ई सप्लिमेण्ट्स अत्यधिक हानिप्रद कहे गये हैं। एल्काएलेटिंग एजेण्ट्स व एण्टि-ट्यूमर एण्टिबायोटिक्स इत्यादि कीमोथिरेपी ड्रग्स भी विटामिन-ई सप्लिमेण्ट्स से अभिक्रिया कर लेते हैं ऐसे अनुमान वैज्ञानिकों द्वारा जताये जाते रहे हैं।
स्टेटिन्स (रुधिर में कोलेस्टेरोल की मात्रा घटाने में दी जाने वाली दवा) व नियासिन (विटामिन-बी3) के साथ यदि विटामिन-ई सप्लिमेण्ट्स का प्रयोग कर लिया जाये तो विटामिन-बी3 का प्रभाव घट सकता है। विटामिन-ई सप्लिमेण्ट्स लेने वालों में समस्त कारणों से मृत्यु की आशंका बढ़ने तक की बात कही जाती है।