तिल अथवा तिल्ली के बीजों व तैल का प्रयोग सदियों से किया जाता रहा है। मुख्यतः तैल के कारण इसकी खेती की जाती है जिससे इसे तिलहन में सम्मिलित किया जाता है। तिल के बीज रेशो, प्रोटीन, विटामिन्स, खनिजों व एण्टिआक्सिडेण्ट्स में समृद्ध होते हैं।
तिल में सीसेमिन व सीसेमोलिन एण्टिआक्सिडेण्ट व जीवाणुरोधी गुणधर्म वाले होते हैं। एण्टिआक्सिडेण्ट्स स्वास्थ्य को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचा रहे मुक्तमूलकों (फ्ऱी रेडिकल्स) को घटाते हुए शरीर को विविध रोगों से बचाते हैं। जीवाणुरोधी गुण के कारण एथलीट फ़ूट जैसे कवक जनित त्वचा रोगों को दूर करने में भी उपयोगी पायी गयी है।
स्टेफ़ संक्रमण स्टेफ़ाइलोकोकस जीवाणुओं द्वारा होते हैं जो कि स्वस्थ व्यक्ति की भी नासिका में अथवा त्वचा पर पाये जाते हैं। अधिकांशतया ये जीवाणु कोई समस्या उत्पन्न नहीं करते अथवा नाममात्र का त्वचा-संक्रमण ला सकते हैं, बस। स्ट्रेप थ्रोट ऐसा जीवाण्विक संक्रमण है जिसमें गले में सूजन व दर्द होता है। यह स्थिति ग्रुप ऐ स्ट्रेप्टोकोकस जीवाणुओं से आती है।
वैसे तो यह समस्या बच्चों से लेकर वृद्धों तक को प्रभावित कर सकती है परन्तु 5 से 15 वर्ष के लोगों में अधिक होती है। एथलीट फ़ूट (टीनिया पेडिस) ऐसा कवक (फफूद) है जो प्रायः पाँव की अँगुलियों के मध्य आरम्भ होता है। जूते-मौजे समय-समय पर न धोने वाले अथवा गीले पैर रहने वालों में यह सरलता से हो सकता है जिसमें शल्की चकत्ते पड़ सकते हैं जिनसे कि प्रायः खुजली, चुभन व जलन होती है।
तिल खाने के फायदे
*. कोलेस्टेरोल व ट्राईग्लिसराइड्स घटायें – तिल के बीजों में उपस्थित लिग्रेन्स व फ़ाइटोस्टेराल्स कोलेस्टेरोल को घटाने में सहायक हो सकते हैं। फ़ाइटोस्टेराल्स तो कुछ कैन्सर्स का जोख़िम घटाने में एवं प्रतिरक्षा-तन्त्र को सुदृढ़ करने में भी उपयोगी कहे गये हैं।
*. मुख का स्वास्थ्य – तिल के बीज मसूढ़ों व दाँतों में प्लेक को बढ़ाने वाले जीवाणुओं को नष्ट करते देखे गये हैं। तिल्ली के कच्चे बीजों को चबाने से दंत स्वास्थ्य ठीक रखने में सहायता होगी।
*. मधुमेह का नियन्त्रण – अनुसंधानों में ऐसा प्रदर्शित हुआ है कि ट्रेडिशनल टाइप 2 डायबिटीज़ की दवाइयों की प्रभावशीलता बढ़ जाती है यदि साथ ही साथ तिल्ली का सेवन किया जा रहा हो।
टाइप 2 डायबिटीज़ (Type 2 Diabetes) जीवनभर का ऐसा रोग है जिसमें शरीर पर्याप्त इन्स्युलिन (Insulin) नहीं बना पाता। इस स्थिति का एक प्रभाव उच्च रक्त शर्करा अर्थात हायपरग्लाएसीमिया के रूप में सामने आता है। तिल के तेल में उपस्थित एण्टिआक्सिडेण्ट्स भी रुधिर में शर्करा की मात्रा को घटाने में सहायता करते हैं।
*. कैन्सर से बचाव व उपचार में सहायक – तिल का सीसेमाल कैन्सर के विरुद्ध कार्य करता है क्योंकि इसमें ये गुणधर्म होते हैं, एण्टिआक्सिडेण्ट, एण्टि-म्यूटाजेनिक, एण्टि-हिपेटोटाक्सिक, सूजन-रोधी, एण्टि-एजिंग एवं कीमोप्रिवेण्टिव। एपाप्टासिस को अर्थात् कोशिका-मरण को विनियमित रखने में भी सीसेमाल सक्षम हो सकता है।
*. प्रोटीन – प्रोटीन की प्रचुरता के कारण तिल वास्तव में शाकाहारियों के लिये विशेष उपयोगी हो सकता है।
*. ताम्र – तिल में ताँबे की अधिकता से यह लालरक्त कोशिकाओं (Red Cells) के निर्माण में सहायता करता है एवं प्रतिरक्षा-तन्त्र को सुचारु रखने में भी सहायक हो सकता है।
*. मैंग्नीज़ व कैल्शियम – ये दो पोषक तत्त्व अस्थियों को स्वस्थ व मजबूत बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण हैं। कैल्शियम तो तन्त्रिकीय संकेत परिवहन, पेशीय गति, रुधिर-वाहिका कार्य एवं हार्मोन स्रावण में भी भूमिका निभाता है।
*. फ़ास्फ़ोरस – शरीर में अस्थियों व दाँतों को ठीक रखने में कैल्शियम को फ़ास्फ़ोरस की आवश्यकता पड़ती है। फ़ास्फ़ोरस तन्त्रिकाओं व पेशियों की कार्यप्रणाली को सामान्य रखने के लिये भी महत्त्वपूर्ण है। शरीर के रक्त के क्षाराम्लस्तर (PH) को संतुलित रखने में फ़ास्फ़ोरस आवश्यक है। वसा, कार्बोहाइड्रेट व प्रोटीन से ऊर्जा-उत्पादन कराने में भी फ़ास्फ़ोरस अपनी भूमिका निभाता है जो कि तिल में मिल जाता है।
*. मैग्नीशयम – यह रक्तचाप को सामान्य रखने, अस्थियों को मजबूत रखने व हृदय की धड़कन को स्थिर रखने में महत्त्वपूर्ण है।
*. लौह – यह रक्त उत्पादन के लिये आवश्यक है। शरीर का 70 प्रतिशत लौह लालरक्त कोशिकाओ में हीमोग्लोबिन के रूप में एवं पेषियों में मायोग्लोबिन के रूप में पाया जाता है। हीमोग्लोबिन फेफड़ों से ऊतकों तक रक्त में आक्सीजन के परिवहन के लिये आवष्यक है।
*. जस्ता – शरीर की प्रतिरक्षा-प्रणाली के लिये यह आवश्यक है। यह कोशिका-विभाजन, कोशिका-बढ़त, घाव भरने व कार्बोहाइड्रेट्स के विखण्डन के भी लिये महत्त्वपूर्ण है। जस्ता स्वाद व सूँघने की क्षमता में भी महती भूमिका निभाता है।
*. मालिब्डेनम – तिल में उपस्थित मालिब्डेनम आमाशय व आँत से होकर रक्त में मिल जाता है एवं यकृत, वृक्कों व अन्य अंगों की ओर चल पड़ता है। कुछ मालिब्डेनम यकृत व वृक्कों में संचित रहता है एवं अधिकांश तो मालिब्डेनम कोफ़ैक्टर में परिणत हो जाता है। मालिब्डेनम चार विकरों (एन्ज़ाइम्स) के लिये कोफ़ैक्टर की भाँति कार्य करता है। ये विकर सल्फ़ाइट्स की प्रोसेसिंग में एवं शरीर से अपशिष्ट उत्पादों व विषों के विखण्डन में भागीदार होते हैं।
*. सेलेनियम – मानवों के लिये यह सूक्ष्म मात्रिक खनिज है, अर्थात् यह बहुत कम मात्रा में आवश्यक होता है। यह सेलेनोप्रोटीन्स का एक घटक है एवं संरचनात्मक भूमिकाएँ निभाता है। एण्टिआक्सिडेण्ट के रूप में कार्य करता है तथा सक्रिय थायराइड हार्मोन के उत्पादन में उत्प्रेरक (केटालिस्ट) के रूप में भी भूमिका निभाता है।
*. विटामिन बी1- थियामिन (विटामिन बी1) आठ आवश्यक बी-विटामिन्स में से एक है। अनेक कार्यों के साथ यह भोजन को ऊर्जा में बदलने के लिये सहायता करता है। तिल में नियासिन (विटामिन बी3) व Vitamin B1 भी होता है।
तिल खाने से जुडी सावधानी (नुकसान )
रेशे पाचन-तन्त्र की कार्य प्रणाली को सुचारु रखने में महत्त्वपूर्ण होते हैं परन्तु तिल के बीजों में रेशे बहुत अधिक मात्रा में होते हैं जिससे यदि पाचन में कोई समस्या हो जाये तो तिल के बीजों का कम सेवन करें, तिल के तैल की मात्रा बढ़ायें अथवा बारीक पिसे तिल-बीजों के उत्पाद खायें, जैसे कि गजक किन्तु वह भी सीमित मात्रा में। बीजों को अधिक मात्रा में सेवन न करें, न ही अधिक आवृत्ति में खायें।