श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य,
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥ १॥
करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की में वंदना करता हूँ ॥ १॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
और तब तक मेरी राह देखना, जब तक कि मैं सीताजी का पता लगाकर लौट ना आऊँ, (जब तक मै सीताजी को देखकर लौट न आऊँ)॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
तब कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।
प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
हनुमान् जी खेल से ही (अनायास ही, कौतुकी से) कूदकर उसके ऊपर चढ़ गए॥
बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
ऐसे हनुमानजी वहा से लंका की ओर चले॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।
हे मैनाक, तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो, इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो, (अर्थात् अपने ऊपर इन्हे विश्राम दे)॥
[ दोहा १ ]
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।
रामचन्द्रजीका का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहाँ? ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।
उनके बल और बुद्धि के वैभव को जानने के लिए॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।
उस नागमाताने आकर हनुमानजी से यह बात कही॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
यह बात सुन, हँस कर हनुमानजी बोले॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। मै तुझे सत्य कहता हूँ॥
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
तब हनुमानजी ने कहा कि, तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
हनुमानजी ने अपना शरीर, उससे दूना यानी दो योजन विस्तारवाला किया॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
हनुमानजीने अपना शरीर तुरंत बत्तीस (३२) योजन बड़ा किया॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।
हनुमानजी ने वैसे ही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
सुरसाके मुंहमें घुसकर तुरन्त बाहर निकल आए।
फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।
हे हनुमान! देवताओंने मुझको जिसके लिए भेजा था,
वह तुम्हारे बल और बुद्धि का भेद, मैंने अच्छी तरह पा लिया है॥
श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
[ दोहा २ ]
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।
सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे।
ऐसे आशीर्वाद देकर, सुरसा तो अपने घर को चली,
और हनुमानजी प्रसन्न होकर, लंकाकी ओर चले ॥
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।
वह माया करके आकाश मे उड़ते हुए पक्षी और जंतुओको पकड़ लिया करता था॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
उसकी परछाई जल में देखकर परछाई को जल में पकड़ लेता॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
इस तरह वह हमेशा, आकाश मे उड़ने वाले जिवजन्तुओ को खाया करता था॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
हनुमान् जी ने उसका वह छल तुरंत पहचान लिया॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
उसे मारकर समुद्र के पार उतर गए॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
भँवरे मधु (पुष्प रस) के लोभसे गुंजार कर रहे है॥
नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
पक्षी और हिरणोंका झुंड देखकर तो वे मन मे बहुत ही प्रसन्न हुए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।
निर्भय होकर उस पहाड़पर कूदकर चढ़ बैठे॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
हे पार्वती! इसमें हनुमान की कुछ भी अधिकता नहीं है।
यह तो केवल रामचन्द्रजीके ही प्रताप का प्रभाव है कि,
जो काल को भी खा जाता है॥
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
तो वह ऐसी बड़ी दुर्गम है की,
जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा।।
फिर उसके चारो ओर समुद्र की खाई।
उसपर भी ससोने के परकोटे (चार दीवारी) का तेज प्रकाश
कि जिससे नेत्र चकाचौंध हो जाए॥
छं० – कनक कोट बिचित्र मनि कृत
सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं
चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर
रथ बरूथिन्ह को गनै।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल
सेन बरनत नहिं बनै।। १ ।।
बन बाग उपबन बाटिका
सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या
रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल
समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि
एक एकन्ह तर्जहीं।। २ ।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन
नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज
खल निसाचर भच्छहीं।।
राक्षस लोगो का आचरण बहुत बुरा है।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की
कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि
त्यागि गति पैहहिं सही।। ३ ।।
श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
[ दोहा ३ ]
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।
मै छोटा रूप धारण करके नगर में प्रवेश करूँ ॥
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी के नाम का सुमिरन करते हुए लंका में प्रवेश करते है॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। हनुमानजी की भेंट, उस लंकिनी राक्षसी से होती है। वह पूछती है कि,
मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहा जा रहे हो?
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
जहाँ तक चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
जिससे वह पृथ्वी पर लुढक पड़ती है॥
पुनि संभारि उठि सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय संसका।।
और डर के मारे हाथ जोड़कर हनुमानजी से कहती है॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
जब ब्रह्मा ने रावण को वर दिया था,
तब चलते समय उन्होंने राक्षसों के विनाश की यह पहचान मुझे बता दी थी कि॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।
हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं,
जो मैं श्री रामजी के दूत को अपनी आँखों से देख पाई॥
[ दोहा ४ ]
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
तराजू के एक पलड़े में रखा जाए,
तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए)
उस सुख के बराबर नहीं हो सकते,
जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
विष अमृत हो जाता है,
शत्रु मित्रता करने लगते हैं,
समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है,
अग्नि में शीतलता आ जाती है॥
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।
उसके लिए सुमेरु पर्वत रज के समान हो जाता है॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥
सयन किए देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
वहां भी हनुमानजी ने सीताजी की खोज की,
परन्तु सीताजी उस महल में कही भी दिखाई नहीं दीं॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
उस महल में भगवान का एक मंदिर बना हुआ था॥
श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
[ दोहा ५ ]
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।
उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती॥
वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर
कपिराज हनुमान हर्षित हुए॥
लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
राक्षसो के समूह का निवास स्थान है।
यहाँ सत्पुरुषो के रहने का क्या काम॥
मन महुँ तरक करै कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा।।
इतने में विभीषण की आँख खुली॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
तो हनुमानजीने जाना की यह कोई सत्पुरुष है।
इस बात से हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।
इनसे जरूर पहचान करनी चहिये,
क्योंकि सत्पुरुषोके हाथ कभी कार्यकी हानि नहीं होती,
बल्कि लाभ ही होता है॥
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
तो वह वचन सुनतेही विभीषण उठकर उनके पास आया॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
हे ब्राह्मणदेव!, जो आपकी बात हो सो हमें समझाकर कहो
(अपनी कथा समझाकर कहिए)॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई।।
क्योंकि मेरे मनमें आपकी ओर बहुत प्रीती बढती जाती है,
आपको देखकर मेरे हृदय मे अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी।।
भक्तोपर अनुराग रखनेवाले आप साक्षात दिनबन्धु ही तो नहीं पधार गए हो॥
(अथवा क्या आप दीनो से प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी ही है, जो मुझे बड़भागी बनाने, घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने आए है?)
[ दोहा ६ ]
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।
हनुमानजीने रामचन्द्रजीकी सब कथा विभीषणसे कही,
और अपना नाम बताया।
प्रभु राम के नाम स्मरण से, दोनों के मन आनंदित हो जाते है
परस्परकी बाते सुनतेही दोनोंके शरीर रोमांचित हो गए और श्री रामचन्द्रजीका स्मरण आ जानेसे दोनों आनंदमग्न हो गए ॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
जैसे दांतों के बिचमें बिचारी जीभ रहती है, ऐसे हम इन राक्षसोंके बिच में रहते है॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
मुझको अनाथ जानकर कभी कृपा करेंगे?
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
(जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥
[ दोहा ७ ]
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।
भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान् जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
(विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों न हों?
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता।।
मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
तब हनुमान् जी विदा लेकर चले।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ।।
जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं।
कृस तन सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।
हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥
श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
[ दोहा ८ ]
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।
जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमान् जी बहुत ही दुःखी हुए॥
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई।।
और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)?
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा।।
जो स्त्रिया रावणके संग थी, वे बहुत प्रकार के गहनों से बनी ठनी थी॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा।।
साम, दान, भय और भेद दिखलाया॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही!
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
कभी कमलिनी खिल सकती है?
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥
सठ सूने हरि आनेहि मोहि।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।
रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥
[ दोहा ९ ]
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।
और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला-॥
सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी।।
हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
और हाथी की सूँड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है,
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।
रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥
चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं।।
श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले,
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।
तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।
जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।
तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा॥
[ दोहा १० ]
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।
यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥
त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका।।
उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना।।
सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥
सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी।।
राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई।
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
और मानो लंका विभीषण ने पाई है।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा॥
यह सपना में कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं।।
और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं॥
[ दोहा ११ ]
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।
एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥
त्रिजटा सन बोली कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।
हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है।
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।
विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
हे माता! फिर उसमें आग लगा दे।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।
रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।।
न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा।।
पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका।।
मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥
नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।
अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा)
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता।।
वह क्षण हनुमान्जी को कल्प के समान बीता॥
[सोरठा १२ ]
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।
मानो अशोक ने अंगारा दे दिया।
(यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥
तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर।।
एवं मनोहर अँगूठी देखी।
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।
और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥
जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई।।
और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती।
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
इसी समय हनुमान्जी मधुर वचन बोले-॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।
(जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
हनुमान्जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कहि सो प्रगट होति किन भाई।।
वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता?
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।।
उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं?
उनके मन में आश्चर्य हुआ॥
राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।
करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ,
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥
नर बानरहि संग कहु कैसें।
कहि कथा भइ संगति जैसें।।
तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही॥
[ दोहा १३ ]
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।
उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।
नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयउ तात मों कहुँ जलजाना।।
मुझको तुम जहाज हुए॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो।
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
फिर हे हनुमान्! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥
सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं?
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।।
मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
(बड़े दुःख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया!
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
हनुमान्जी कोमल और विनीत वचन बोले- ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥
[ दोहा १४ ]
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
ऐसा कहकर हनुमान्जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥
कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।
पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
एक मेरा मन ही जानता है॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।
बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
उन्हें शरीर की सुध न रही॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई।।
और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥
[ दोहा १५ ]
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।
हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥
जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई।।
तो वे बिलंब न करते।
रामबान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
श्री रामचंद्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना।।
राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं॥
मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया।
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा।।
जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
हनुमान्जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥
[ दोहा १६ ]
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है।
(अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
सीताजी के मन में संतोष हुआ।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।
और फिर हाथ जोड़कर कहा-
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
मुझे बड़ी ही भूख लग आई है।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी।।
इस वन की रखवाली करते हैं॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।
तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥
[ दोहा १७ ]
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।
हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।
उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की-॥
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया॥
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
उन्हें देखकर हनुमान्जी ने गर्जना की।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।
कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।
और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर) से गर्जना की॥
[ दोहा १८ ]
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।
कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान् है॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना।।
और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
उस बंदर को देखा जाए कि कहाँ का है॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े॥
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया। (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया)।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।
उनको पकड़-पकड़कर हनुमान्जी अपने शरीर से मसलने लगे॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
(लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई।।
उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।
परंतु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥
[ दोहा १९ ]
ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।
यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं,
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं॥
[ दोहा २० ]
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।
फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥
कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहिं के बल घालेहि बन खीसा।।
किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला?
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।
रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूँ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है?
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचित माया।।
माया संपूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है,
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।
सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं,
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन।।
और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं,
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं,
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली।।
जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे॥
[ दोहा २१ ]
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
हनुमान्जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
(इसलिए) मैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी।।
कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।
उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया (किंतु),
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो॥
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई।।
वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है,
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै।।
और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो॥
[ दोहा २२ ]
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।
शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
और लंका का अचल राज्य करो।
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषण भूषित बर नारी।।
कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
और उसका पाना न पाने के समान है।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।।
(अर्थात् जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है।
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते॥
[ दोहा २३ ]
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।
और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥
जदपि कहि कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही,
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!॥
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।
अधम! मुझे शिक्षा देने चला है।
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
और बोला-अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते?
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।
उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सबने कहा- भाई! यह सलाह उत्तम है॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए॥
[ दोहा २४ ]
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।
अतः तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा।
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ!॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना।।
(और मन ही मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वतीजी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं।
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
वही (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
हनुमान्जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गई (लंबी हो गई)।
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
वे हनुमान्जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हँसी करते हैं॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।
हनुमान्जी को नगर में फिराकर, फिर पूँछ में आग लगा दी।
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघु रुप तुरंता।।
तुरंत ही बहुत छोटे रूप में हो गए॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं।।
उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गईं॥
[ दोहा २५ ]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
हनुमान्जी अट्टहास करके गर्जे और बढ़कर आकाश से जा लगे॥
देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।
आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहि अवसर को हमहि उबारा।।
(चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही है।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई।।
वानर का रूप धरे कोई देवता है!॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
अनाथ के नगर की तरह जल रहा है।
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
एक विभीषण का घर नहीं जलाया॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले।
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।
फिर वे समुद्र में कूद पड़े॥
[ दोहा २६ ]
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।
हनुमान्जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
हनुमान्जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है)॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना)।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
तो फिर मुझे जीती न पाएँगे॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना।।
हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
फिर मुझे वही दिन और वही रात!॥
[ दोहा २७ ]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री रामजी के पास गमन किया॥
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
ग जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।।
और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।।
(जिससे उन्होंने समझ लिया कि) ये श्री रामचंद्रजी का कार्य कर आए हैं॥
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो।
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
कहते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए।।
और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाए।
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।
तब घूँसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे॥
[ दोहा २८ ]
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।
यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं॥
जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे?
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा।।
कि समाज सहित वानर आ गए॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।
श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ (कार्य में विशेष सफलता हुई है)॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
और सब वानरों के प्राण बचा लिए॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।।
और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े॥
[ दोहा २९ ]
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।
वानरों ने कहा- हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है॥
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं,
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।
उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू।।
आज हमारा जन्म सफल हो गया॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता॥
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
श्री रघुनाथजी को सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
उन्होंने हर्षित होकर हनुमान्जी को फिर हृदय से लगा लिया॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥
[ दोहा ३० ]
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।
जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।
फिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?॥
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।।
जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है॥
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।
जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती॥
सीता के अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।
हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥
[ दोहा ३१ ]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।
अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए॥
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना।।
प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया॥
बचन काँय मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई।।
जब आपका भजन-स्मरण न हो॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है॥
[ दोहा ३२ ]
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।
और प्रेम में विकल होकर ‘हे भगवन्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े॥
बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए॥
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।
शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे-
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा।।
और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया॥
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया?
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।
और वे अभिमानरहित वचन बोले- ॥
साखामृग के बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई।।
वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।।
और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला॥
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।
हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥
[ दोहा ३३ ]
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।
आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है)
बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है)॥
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।
अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती॥
यह संवाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो!
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा।।
चलने की तैयारी करो॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
वानरों को तुरंत आज्ञा दो॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी।।
और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले॥
[ दोहा ३४ ]
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।
वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गरजहिं भालु महाबल कीसा।।
महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे हैं॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
अनेक सुंदर और शुभ शकुन हुए॥
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती।।
उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।।
उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे (कि श्री रामजी आ रहे हैं)॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहि सोई।।
वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए ॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहि बानर भालु अपारा।।
असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी।।
पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।
(उनके चलने और गर्जने से) दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिंग्घाड़ रहे हैं॥
छं० – चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि
लोल सागर खरभरे।
और समुद्र खलबला उठे॥
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि
नाग किन्नर दुख टरे।।
मन में हर्षित हुए’ कि (अब) हमारे दुःख टल गए॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट
बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं॥
जय राम प्रबल प्रताप कोसल–
नाथ गुन गन गावहीं।।1।।
ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥
सहि सक न भार उदार अहिपति
बार बारहिं मोहई।
वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं॥
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट
कठोर सो किमि सोहई।।
ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दाँतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खींचते हुए) ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति
जानि परम सुहावनी।
सुंदर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो
लिखत अबिचल पावनी।।2।।
कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों।।2।।
[ दोहा ३५ ]
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।
अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब ते जारि गयउ कपि लंका।।
तब से राक्षस भयभीत रहने लगे॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
अब राक्षस कुल की रक्षा (का कोई उपाय) नहीं है॥
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी)?
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी।।
और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली-
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए॥
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर घरनी।।
राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं,
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
जाड़े की रात्रि के समान आई है॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।
शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥
[ दोहा ३६ ]
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।
जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए॥
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला-)
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
मंगल में भी भय करती हो। तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे॥
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई।।
उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।
तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किए रहिए (इसमें सलाह की कौन सी बात है?)॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माही।।
फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?
[ दोहा ३७ ]
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
प्रिय बोलते हैं (ठकुर सुहाती कहने लगते हैं),
तो (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥
सोइ रावन कहुँ बनि सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं।
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन।।
और आज्ञा पाकर ये वचन बोले-
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरुप कहउँ हित ताता।।
तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ-॥
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाई।।
चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥
[ दोहा ३८ ]
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।
इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥
तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
ही मनुष्य शरीर धारण किया है॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।
और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।।
वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥
[ दोहा ३९ (क), (ख) ]
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।
मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।
हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी॥
माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।
विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
यहाँ कोई है? इन्हें दूर करो न!
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे-॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।
उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है॥
[ दोहा ४० ]
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।
कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए)
श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो॥
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी।।
वाणी से नीति बखानकर कही॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।।
और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है!॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाही।।
जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
परंतु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकड़े॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।
परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।।
और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे-॥
[ दोहा ४१ ]
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।
अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं।।
त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)।
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी।।
तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जो सेवकों को सुख देने वाले हैं॥
जे पद परसि तरी रिषिनारी।
दंडक कानन पावनकारी।।
और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले हैं॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।।
जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकड़ने को) दौड़े थे॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई।।
मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा॥
[ दोहा ४२ ]
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूँगा॥
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।।
और उनको सब समाचार कह सुनाए।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई।।
रावण का भाई (आप से) मिलने आया है॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)?
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।।
यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है॥
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।
परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।।
भगवान् कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥
[ दोहा ४३ ]
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।
वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता।
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई।।
तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं॥
जौं सभीत आवा सरनाई।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।
तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥
[ दोहा ४४ ]
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।
तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहते हुए चले॥
सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता।।
दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥
सिंघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा।।
असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है।
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा।।
जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥
[ दोहा ४५ ]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी।।
श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले-॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥
खल मंडलीं बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
(ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है?
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती।।
तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।।
जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥
[ दोहा ४६ ]
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।
जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता॥
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना।।
अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा।।
श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है।
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।
जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
मेरे भारी भय मिट गए।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।
उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया॥
[ दोहा ४७ ]
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।
जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं।
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवे सभय सरन तकि मोही।।
यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥
[ दोहा ४८ ]
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।
नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो।
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले!
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी।।
अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
पर जगत् में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥
[ दोहा ४९ (क), (ख) ]
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।
जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।
वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं।
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी।।
सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए?
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँती।।
यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है)॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई।।
(पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥
[ दोहा ५० ]
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।
तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए।
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।
आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए।।
त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥
[ दोहा ५१ ]
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।
वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा।
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना।।
उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोडाए।।
उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया।
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।
हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो॥
[ दोहा ५२ ]
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।
सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा।।
श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए।
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।
और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता?
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है॥
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जब कर कीट अभागी।।
अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है,
वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा)॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।
जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥
[ दोहा ५३ ]
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।
शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है॥
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए॥
श्रवन नासिका काटै लागे।
राम सपथ दीन्हे हम त्यागे।।
श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती।
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।।
उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है।
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।
उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥
[ दोहा ५४ ]
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान् ये सभी बल की राशि हैं॥
ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रेलोकहि गनहीं।।
वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर।।
अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।।
जो आपको रण में न जीत सके॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला।।
नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।।
मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥
[ दोहा ५५ ]
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।
हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई।।
अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते।
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर
परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)।
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।
जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई।।
उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
उसे जगतमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ?
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली॥
रामानुज दीन्ही यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।
और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥
[ दोहा ५६ (क), (ख) ]
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।
श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।
अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई।।
परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा-॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा।।
वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
(इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही।।
आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे।।
हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए।
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई।।
श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था।
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥
[ दोहा ५७]
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।
तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश)॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी।।
अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा।।
यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥
[ दोहा ५८ ]
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
सब ग्रंथों ने यही गाया है।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।
वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।।
अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥
श्रीरामचरितमानस Ramcharitmanas
[ दोहा ५९]
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।
हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा।।
फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया॥
छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु
श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा॥
यह चरित कलि मलहर जथामति
दास तुलसी गायऊ।।
इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है॥
सुख भवन संसय समन दवन
बिषाद रघुपति गुन गना।।
और विषाद का दमन करने वाले हैं॥
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना।।
निरंतर इन्हें गा और सुन॥
[ दोहा ६० ]
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।
जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥
मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे
सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।