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भारतीय शास्त्रीय नृत्यकला

भारतीय शास्त्रीय नृत्यकला का परिचय

भारत में नृत्य की परंपरा प्राचीन समय से रही है। हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है, जिससे साबित होता है कि उस काल में भी नृत्यकला का विकास हो चुका था। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र शास्त्रीय नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है।  भरतमुनि के अनुसार उन्होंने इस वेद का विकास ऋृग्‍वेद से शब्‍द, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से मुद्राएं और अथर्ववेद से भाव लेकर किया है ।

  • प्राचीन शोध-निबंधों के अनुसार नृत्‍य में तीन पहलुओं पर विचार किया जाता है- नाटय, नृत्‍य और नृत्‍त ।
    • नाट्य – इसका अर्थ है नाटकीय प्रतिनिधित्व और उस कहानी को संदर्भित करता है जिसे नृत्य गायन के माध्यम से विस्तृत किया जाता है।
    • नृत्‍य मौलिक अभिव्‍यक्ति है और यह विशेष रूप से एक विषय या विचार का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्‍तुत किया जाता है ।
    • नृत्‍त दूसरे रूप से शुद्ध नृत्‍य है, जहां शरीर की गतिविधियां न तो किसी भाव का वर्णन करती हैं, और न ही वे किसी अर्थ को प्रतिपादित करती हैं ।
  • नृत्‍य और नाटय को प्रभावकारी ढंग से प्रस्‍तुत करने के लिए एक नर्तकी को नवरसों का संचार करने में प्रवीण होना चाहिए । यह नवरस हैं- श्रृंगार, हास्‍य, करूणा, वीर, रौद्र, भय, वीभत्‍स, अदभुत और शांत ।
  • नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्य दो तरह के होते हैं-  तांडव तथा लास्य
    • तांडव नृत्य भगवानशंकर ने किया था। यह नृत्य अत्यंत पौरुष और शक्ति के साथ किया जाता है।
    • दूसरी ओर लास्य एक कोमल नृत्य है जिसे भगवान कृष्ण गोपियों के साथ किया करते थे।

भारतीय नृत्यकला को दो वर्गों में बाँटा जाता है- (i) शास्त्रीय नृत्यकला(ii) लोक एवं जनजातीय नृत्यकला।

  • शास्त्रीय नृत्य जहाँ शास्त्र-सम्मत एवं शास्त्रानुशासित होता है, वहीं लोक एवं जनजातीय नृत्य विभिन्न राज्यों के स्थानीय एवं जनजातीय समूहों द्वारा संचालित होते हैं और इनका कोई निर्धारित नियम-व्याकरण या अनुशासन नहीं होता।
  • भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख शैलियाँ 8 हैं- कत्थक, भरतनाट्यम, कत्थकली, मणिपुरी, ओडिसी, कुचीपुड़ी, सत्रीया एवं मोहिनीअट्टम।
  • शास्त्रीय नृत्यों में तांडव (शिव) और लास्य (पार्वती) दो प्रकार के भाव परिलक्षित होते हैं।

शास्त्रीय नृत्यकला

भाव

भरतनाट्यम (तमिलनाडु) लास्य भाव
कत्थकली (केरल) तांडव भाव
मणिपुरी (मणिपुर) लास्य तांडव
ओडिसी (ओडिशा) लास्य भाव
कुचीपुड़ी (आंध्र प्रदेश) लास्य भाव
मोहिनीअट्टम (केरल) लास्य भाव
सत्रीया (असम) लास्य भाव
कत्थक (उत्तर प्रदेश, जयपुर ) तांडव लास्य

शास्त्रीय नृत्यकला की संख्या 8 या 9 ?

  • वर्तमान में, संगीत नाटक अकादमी के अनुसार, भारत में आठ शास्त्रीय नृत्य रूप मौजूद हैं, जिनमें भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, मणिपुरी, कथक और सत्त्रिया शामिल हैं।
  • हालाँकि, संस्कृति मंत्रालय के अनुसार शास्त्रीय नृत्यों की कुल संख्या नौ है क्योंकि वह छऊ नृत्य को भी भारत का शास्त्रीय नृत्य मानता है।

भारत के 8 शास्त्रीय नृत्यकला :

भरतनाट्यम (तमिलनाडु)

शास्त्रीय नृत्यकला
  • भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जन्मी इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ।
  • मंदिरों में देवदासियों द्वारा शुरू किये गए इस नृत्य को 20वीं सदी में रुक्मिणी देवी अरुंडेल और ई. कृष्ण अय्यर के प्रयासों से पर्याप्त सम्मान मिला।
  • नंदिकेश्वर द्वारा रचित ‘अभिनय दर्पण’ भरतनाट्यम के तकनीकी अध्ययन हेतु एक प्रमुख स्रोत है।
  • भरतनाट्यम नृत्य के संगीत वाद्य मंडल में एक गायक, एक बाँसुरी वादक, एक मृदंगम वादक, एक वीणा वादक और एक करताल वादक होता है।
  • भरतनाट्यम नृत्य के कविता पाठ करने वाले व्यक्ति को ‘नडन्न्वनार’ कहते हैं।
  • भरतनाट्यम में शारीरिक क्रियाओं को तीन भागों में बाँटा जाता है-समभंग, अभंग और त्रिभंग।
  • इसमें नृत्य क्रम इस प्रकार होता है- आलारिपु (कली का खिलना), जातीस्वरम् (स्वर जुड़ाव), शब्दम् (शब्द और बोल), वर्णम् (शुद्ध नृत्य और अभिनय का जुड़ाव), पदम् (वंदना एवं सरल नृत्य) तथा तिल्लाना (अंतिम अंश विचित्र भंगिमा के साथ)।
  • भरतनाट्यम एकल स्त्री नृत्य है।
  • इस नृत्य के प्रमुख कलाकारों में पद्म सुब्रह्मण्यम, अलारमेल वल्ली, यामिनी कृष्णमूर्ति, अनिता रत्नम, मृणालिनी साराभाई, मल्लिका साराभाई, मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई, सोनल मानसिंह, वैजयंतीमाला, स्वप्न सुंदरी, रोहिंटन कामा, लीला सैमसन, बाला सरस्वती आदि शामिल हैं।

कत्थकली (केरल)

  • कत्थकली अभिनय, नृत्य और संगीत तीनों का समन्वय है।
  • यह एक मूकाभिनय है जिसमें हाथ के इशारों और चेहरे की भावनाओं के सहारे अभिनेता अपनी प्रस्तुति देता है।
  • इस नृत्य के विषयों को रामायण, महाभारत और हिन्दू पौराणिक कथाओं से लिया जाता है तथा देवताओं या राक्षसों को दर्शाने के लिये अनेक प्रकार के मुखौटे लगाए जाते हैं।
  • केरल के सभी प्रारंभिक नृत्य और नाटक जैसे- चकइरकोथू, कोडियाट्टम, मुडियाअट्टू, थियाट्टम, थेयाम, सस्त्राकली, कृष्णाअट्टम तथा रामाअट्टम आदि कत्थकली की ही देन हैं।
  • इसे मुख्यत: पुरुष नर्तक ही करते हैं, जैसे – मकुंद राज, कोप्पन नायर, शांता राव, गोपीनाथन कृष्णन, वी.एन. मेनन आदि।

कुचीपुड़ी (आंध्र प्रदेश)

  • आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में कुचीपुड़ी नामक गाँव है जहाँ के द्रष्टा तेलुगू वैष्णव कवि सिद्धेन्द्र योगी ने यक्षगान के रूप में कुचीपुड़ी शैली की कल्पना की।
  • भामाकल्पम् और गोलाकल्पम् इससे जुड़ी नृत्य नाटिकाएँ हैं।
  • कुचीपुड़ी में स्त्री-पुरुष दोनों नर्तक भाग लेते हैं और कृष्ण-लीला की प्रस्तुति करते हैं।
  • कुचीपुड़ी में पानी भरे मटके को अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में नृत्य करना बेहद लोकप्रिय है।
  • इस नृत्यशैली के प्रमुख नर्तकों में भावना रेड्डी, यामिनी रेड्डी, कौशल्या रेड्डी, राजा एवं राधा रेड्डी आदि शामिल हैं।

मोहिनीअट्टम (केरल)

  • यह एकल महिला द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला ऐसा नृत्य है, जिसमें भरतनाट्यम तथा कत्थकली दोनों के कुछ तत्त्व शामिल हैं।
  • धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु ने भस्मासुर से शिव की रक्षा हेतु मोहिनी रूप धारण कर यह नृत्य किया था।
  • मोहिनीअट्टम की प्रस्तुति चोलकेतु, वर्णम, पद्म, तिल्लाना, कुमी और स्वर के रूप में होती है।
  • मोहिनीअट्टम नृत्य को पुनर्जीवन प्रदान करने में तीन लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है- स्वाति थिरूनल, राम वर्मा, वल्लतोल नारायण मेमन (केरल मंडलम संस्था के संस्थापक) और कलामंडलम कल्याणकुट्टी अम्मा (द मदर ऑफ मोहिनीअट्टम)।

कत्थक (उत्तर प्रदेश,जयपुर)

  • कत्थक शब्द का उदभव कथा शब्द से हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है कथा कहना।
  • वस्तुतः कत्थक उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की रासलीला परंपरा से जुड़ा हुआ है।
  • इसमें पौराणिक कथाओं के साथ ही ईरानी एवं उर्दू कविता से ली गई विषय वस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
  • इसे ‘नटवरी’ नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
  • अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय ठाकुर प्रसाद एक उत्कृष्ट नर्तक थे, जिन्होंने नवाब को नृत्य सिखाया तथा ठाकुर प्रसाद के 3 पुत्रों बिंदादीन, कालका प्रसाद एवं भैरव प्रसाद ने कत्थक को लोकप्रिय बनाया।
  • कत्थक नृत्य की ख़ास विशेषता इसके पद संचालन और घिरनी खाने में है। इसमें घुटनों को मोड़ा नहीं जाता है।
  • इसे ध्रुपद एवं ठुमरी गायन के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
  • भारत के शास्त्रीय नृत्यों में केवल कत्थक का ही संबंध मुस्लिम संस्कृति से रहा है।

मणिपुरी नृत्य (मणिपुर)

  • यह नृत्य रूप 18वीं सदी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ।
  • इसमें शरीर धीमी गति से चलता है तथा संकेतों एवं शरीर की गतिविधियों का प्रयोग होता है।
  • इसमें भक्ति पर अधिक बल दिया गया है तथा इसमें तांडव एवं लास्य दोनों का समावेश होता है।
  • इस नृत्य की आत्मा ढोल है। इसमें मुद्राओं का सीमित प्रयोग होता है तथा नर्तक घुंघरू नहीं बांधते।
  • रवींद्रनाथ टेगोर ने इसके विकास में महती भूमिका निभाई। वे इससे बहुत प्रभावित थे तथा उन्होंने शांति निकेतन में इसका प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया था।

ओडिसी नृत्य (ओडिशा)

  • ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में एक महारिस संप्रदाय हुआ करता था जो शिव मंदिरों में नृत्य करता था। कालांतर में इसी से ओडिसी नृत्य कला का विकास हुआ।
  • इस पर 12वीं शताब्दी में वैष्णववाद का भी व्यापक प्रभाव पड़ा।
  • इसे सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्यों में से एक माना जाता है।
  • इसका उल्लेख शिलालेखों पर भी मिलता है। ब्रम्हेश्वर मंदिर के शिलालेखों तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर में इसका उल्लेख है।
  • इसमें त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। त्रिभंग में एक पाँव मोड़ा जाता है और देह को थोड़ा, किंतु विपरीत दिशा में कटि और ग्रीवा पर वक्र किया जाता है।
  • इसकी मुद्राएँ एवं अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं।

सत्रिया नृत्य (असम)

  • यह संगीत, नृत्य तथा अभिनय का सम्मिश्रण है।
  • इस नृत्य शैली के विकास का श्रेय संत शंकरदेव को जाता है।
  • शंकरदेव ने इसे “अंकिया नाट” के प्रदर्शन के लिये विकसित किया था।
  • इसमें पौराणिक कथाओं का समावेश होता है।
  • इसमें शंकरदेव द्वारा संगीतबद्ध रचनाओं का प्रयोग किया गया, जिसे बोरगीत कहा जाता है।

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