सन्त च्वांगत्सु एक अन्धेरी रात में मरघट से गुजर रहा था। वह मरघट शाही खानदान का था। अचानक उसका पैर एक आदमी की खोपड़ी पर लग गया। च्वांगत्सु फकीर घबरा गया। उसने वह खोपड़ी उठायी और घर लाकर उसके आगे हाथ-पांव जोड़ने लगा कि मुझे क्षमा कर दो। उसके मित्र इकट्ठे हो गये और कहने लगे,”पागल हो गये हो, इस खोपड़ी से क्षमा मांगते हो?”
च्वांगत्सु ने उत्तर दिया,” यह बड़े आदमी की खोपड़ी है। यह सिंहासन पर बैठ चुकी है। मैं क्षमा इसलिए मांगता हूं क्योंकि यह आदमी आज जीवित होता और मेरा पैर उसके सिर पर लग जाता तो पता नहीं मेरी क्या हालत बनाता? यह तो सौभाग्य है, यह आदमी जीवित नहीं है, लेकिन क्षमा मांग ही लेनी चाहिए।”
मित्रों ने कहा, तुम बड़े पागल हो।”
च्वांगत्से ने कहा, मैं पागल नहीं हूं। मैं तो इस मरे हुए आदमी से कहना चाहता हूं कि जिस खोपड़ी को तू सोचता था, सिंहासन पर बैठी है वही लोगों की, एक फकीर की ठोकर खा रही है और ‘उफ’ भी नहीं कर सकती। कहां गया तेरा सिंहासन? कहाँ गया तेरा अहंकार?”
कितना अच्छा जवाब था च्वांगत्सु का! आदमी को कभी भी पद और नाम का घमण्ड नहीं करना चाहिए।
इस संसार में हर कोई सात्विक प्रवृत्ति का इंसान नहीं है, तामसिक विचारों वालों की भी कमी नहीं। तामसिक विचार से पीड़ित व्यक्ति किसी की भी उन्नति से खुश होने की बजाय दुःखित होते रहे हैं और कोई-न-कोई नुक्स निकालकर आलोचना करते रहते हैं.
अपनी आलोचना या निंदा सुनकर आवेश में नहीं आना चाहिए, बल्कि यह विचार करना चाहिए अमुक ने मेरी निंदा या आलोचना किन कारणों से की? उन कारणों को समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए और आलोचना करने वाले को गाली-गलौज की बजाय धन्यवाद देना चाहिए, कि शुक्रिया आपने मुझे मेरी गलती का अहसास करा दिया। गलतियों और आलोचनाओं को स्वीकार करने का विचार ही सकारात्मक सोच को जन्म देता है।