“The Knowledge Library”

Knowledge for All, without Barriers…

An Initiative by: Kausik Chakraborty.

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अलिफ लैला – नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी

शहरजाद ने एक बार फिर शहरयार को नई कहानी सुननी शुरू की। यह कहानी इराक के दो शहर बगदाद और बसरा के बीच की है। शहरजाद ने बताया कि सालों पहले बगदाद की देख-रेख में ही बसरा का सारा राज काज चलता था। उस वक्त बगदाद का राजा था खलीफा हारूं रशीद। उसने बसरा का शासन चलाने के लिए अपने चचेरे भाई जुबैनी को वहां का हाकिम बनाया था। वहीं जुबैनी के नीचे दो मंत्री कार्यरत थे, जिनमें से एक का नाम खाकान और दूसरे का नाम सूएखाकान था। जहां एक ओर खाकान बहुत ही दयालु और दिल का साफ इंसान था, वहीं सूएखाकान उसके विपरीत दुष्ट और क्रूर था। यही वजह थी कि लोग खाकान को बहुत पसंद करते थे और सूएखाकान से नाखुश रहते थे। इस कारण सुएखाकान मन ही मन खाकान से बहुत जलता था।

एक दिन की बात है, जुबैनी ने खाकान से कहा कि मुझे एक दासी की जरूरत है। दासी ऐसी होनी चाहिए, जिसे घर के सभी काम-काज के साथ ही नाचने और गाने की कला का भी ज्ञान हो। उसके साथ ही वह देखने में सुन्दर भी हो। जुबैनी की इच्छा पर खाकान कुछ बोलता कि उससे पहले ही सुएखाकान बोल पड़ा, ‘ऐसी दासी तो दस हजार से कम में नहीं मिलेगी।’

सुएखाकान के इस जवाब पर जुबैनी बोला, ‘दस हजार मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है और उसने खाकान को दस हजार अशर्फियां मंगवा कर दे दीं।’ अशर्फियां मिलते ही खाकान वहां से चला गया और हाकिम की ख्वाहिश के अनुसार दासी की तलाश करने लगा। काफी खोजबीन के बाद खाकान को एक ऐसी दासी के बारे में पता चला, जो बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी दासी हाकिम जुबैनी चाहता था।

दासी की खबर लगते ही खाकान उस दासी को देखने दासों की बाजार में पहुंच गया। वहां उसने पाया कि वह दासी उसकी सोंच से भी ज्यादा खूबसूरत है और उन सभी गुणों से संपन्न है, जो हाकिम अपनी दासी में देखना चाहता था। उस दासी का नाम था हुस्न अफरोज। खाकान ने दासी को बिना देर किए दस हजार अशर्फियां देकर फौरन खरीद लिया।

खाकान उस दासी को साथ लेकर अपने घर चला आया और उसने तय किया कि दासी को एक हफ्ते बाद वह जुबैनी के सामने पेश कर देगा। इस सोच के साथ खाकान ने अपनी पत्नी से कहा, ‘इस दासी को ले जाओ और इसे नहला-धुला कर तैयार कर दो और इसे भरपेट खाना भी खिलाओ। इसकी देखभाल में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। इस दासी को मैं हाकिम के लिए लेकर आया हूं। अभी यह काफी कमजोर है, इसलिए हम इसे एक हफ्ते अपने ही साथ रखेंगे। जब यह थोड़ी स्वस्थ हो जाएगी तो मैं इसे हाकिम को सौंप दूंगा।’

इसके साथ ही खाकान ने हुस्न अफरोज से कहा कि वह उसके बेटे नूरुद्दीन से सावधान रहे। वह जवान है और नासमझ है। तुझे मैं हाकिम जुबैनी की खिदमत करने के लिए लाया हूं। इसलिए उसे किसी भी अन्य पुरुष से दूरी बनाकर रखनी होगी। साथ ही पूरे अदब और पर्दे के साथ इस घर में रहना होगा, क्योंकि वह हाकिम की अमानत है।

इतना कहकर खाकान दरबार में जाने के लिए घर से निकल गया। दोपहर के समय खाकान का बेटा नूरुद्दीन जब घर आया तो उसकी नजर उस खूबसूरत दासी पर पड़ी। नूरुद्दीन ने उस दासी के बारे में अपनी मां से पूछा। तब उसकी मां ने बताया कि इस दासी को हाकिम जुबैनी की सेवा के लिए लाया गया है। यह सुनकर नूरुद्दीन थोड़ा उदास हो गया, क्योंकि नूरुद्दीन उस दासी के रूप पर मोहित हो गया था। वहीं नूरुद्दीन भी देखने में काफी सुन्दर था, इस वजह से हुस्न अफरोज भी नूरुद्दीन से काफी आकर्षित हो गई।

एक रोज नूरुद्दीन मौका पाकर मां के कक्ष में पहुंचा। वहां हुस्न अफरोज अकेली थी। दोनों ने मौके का फायदा उठाया और प्रेम-मिलाप करने लगे। इतने में खाकान की बेगम कमरे में पहुंची और यह सब देख कर वह अपना सिर पीटने लगी। मां के वहां आ जाने के कारण नूरुद्दीन सिर झुकाकर कक्ष से बाहर चला गया। खाकान की पत्नी को सिर पीटते देख हुस्न अफरोज उनके करीब पहुंची और बोली, ‘नूरुद्दीन ने मुझे बताया कि मेरी हाकिम के पास जाने की योजना बदल गई है और अब में नूरुद्दीन की दासी हो गई हूं। इसलिए मैंने उसे अपने करीब आने दिया।’

दासी के मुंह से यह बात सुन कर खाकान की पत्नी बोली, ‘नूरुद्दीन ने तुमसे झूठ कहा। अब हम सब मारे जाएंगे। हाकिम जुबैनी हम में से किसी को भी जिंदा नहीं छोड़ेगा।’ वहीं जब यह बात खाकान को पता चली तो वह भी गुस्से से आग-बबूला हो गया। उसने कहा, ‘लड़के ने हम सब का नाश कर दिया। मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। हाकिम को जब इसकी खबर लगेगी तो वह हमें मरवा डालेगा।’

फिर पत्नी ने बहुत समझाया-बुझाया तब जाकर कहीं खाकान शांत हुआ। मगर, वह अपने पुत्र से काफी नाराज था। पत्नी ने उसे कहा, ‘नूरुद्दीन नौजवान है। अक्सर जवानी में इस तरह की गलती हो जाया करती है। तुम उसे माफ कर दो।’

इस पर खाकान ने पुत्र को बुलवाया और कहा, ‘तुम्हारी गलती माफी के लायक नहीं है। इसके बावजूद भी मैं तुम्हें माफ़ कर रहा हूं, क्योंकि तुम मेरे पुत्र हो। मगर, इसके साथ ही मेरी एक शर्त भी है और शर्त यह है कि नूरुद्दीन तुम्हें हुस्न अफरोज से ब्याह करना होगा। साथ ही यह भी वादा करना होगा कि कभी भी आने वाले समय में तुम उसे दासी समझकर बेचोगे नहीं।’

पिटा की यह बात सुनकर नूरुद्दीन शर्त मान गया। दोनों का विवाह हुआ और वे साथ रहने लगे। कुछ दिन बाद खाकान की तबीयत बिगड़ने लगी। उसका रोग बढ़ता गया और एक रोज वह मर गया। पिता के जाने के बाद नूरुद्दीन के हाथ में पिता की सारी संपत्ति आ गई। उसने दोनों हाथों से धन लुटाना शुरू किया। वह फिजूलखर्ची करने लगा। इस पर पत्नी हुस्न अफरोज ने उसे काफी समझाया, लेकिन पत्नी की बात उसकी समझ में न आई।

धीरे-धीरे समय बीतता गया और नूरुद्दीन का खजाना खाली होता चला गया। हुस्न अफरोज दिन-रात नूरुद्दीन को समझाती, लेकिन वह उसकी एक न सुनता। नौबत यह आ गई कि अब नूरुद्दीन के पस खाने-पीने के खर्च के लिए भी धन नहीं बचा। इसका असर यह हुआ कि अभी तक जो दोस्त नूरुद्दीन के आगे-पीछे घुमते थे, वो भी धीरे-धीरे नूरुद्दीन से मिलने से कतराने लगे।

घर की खस्ता हालत को देखते हुए अंत में हुस्न अफरोज ने कहा, ‘प्रियवर, आप मुझे बाजार में बेच दें और जो धन मिले उससे आप कोई व्यापार कर लें। अब हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।’ इस पर नूरुद्दीन बोला, ‘यह असंभव है, मैंने पिता जी को वचन दिया था कि मैं तुम्हें कभी नहीं बेचूंगा। मैं अपने करीबी मित्रों के पास जाता हूं। वे मेरी मदद जरूर करेंगे।’

इतना कह कर नूरुद्दीन घर से बाहर निकल गया। वह अपने कई मित्रों के पास मदद मांगने के लिए पहुंचा। मगर, सभी ने उसे खाली हाथ लौटा दिया। आंखों में आंसू लिए नूरुद्दीन घर लौटा और हुस्न अफरोज के सामने बच्चों की तरह रोने लगा। उसने बोला, ‘यह दुनिया कितनी नीच है। जब मेरे पास धन था तो ये लोग मेरे सेवक कहलाने में भी गर्व महसूस करते थे, लेकिन अब सहायता करना तो दूर कोई मुझसे मिलना भी नहीं चाहता।’

हुस्न अफरोज बोली, ‘मैं हमेशा तुम्हें यही समझाती थी। मैं जानती थी कि ये लोग स्वार्थी हैं और तुम्हारा फायदा उठा रहे हैं। खैर अब आगे क्या करना है इस बारे में सोचो।’ अब नूरुद्दीन के पास हुस्न अफरोज को बाजार में बेचने के अलावा कोई विकल्प न था। नूरुद्दीन ने दलाल को बुलाया और कहा मेरे पिता ने जो दासी दस हजार में खरीदी थी, अब मैं उसे बेचना चाहता हूं। दलाल ने नूरुद्दीन की बात मान ली और खरीदार देखने लगा।

दलाल ने मोटा व्यापारी देखा और हुस्न अफरोज की फरियाद लेकर उसके पास पहुंच गया। उसने व्यापारी से कहा, ‘आपने कई सुंदरियां देखी होगी, लेकिन मैं जिस सुंदरी की बात लेकर आपके पास आया हूं, उसके जैसा कोई दूसरा नहीं है।’ व्यापारी दलाल की बात से प्रभावित हुआ। उसने दलाल के साथ जाकर अफरोज को देखा और कहा, ‘यह सच में अत्यंत सुंदर है। किंतु हम इसका मोल केवल चार हजार ही देंगे।’ तभी हाकिम के मंत्री सूएखाकान की सवारी उस ओर से गुजरी। सूएखाकान ने काफिला रोका और दलाल से कहा कि मुझे भी सुंदरी को दिखाओ। मैं भी दासी खरीदना चाहता हूं।

यह देख दलाल फौरन नूरुद्दीन के पास पहुंचा और उसे सारी बात बताई। नूरुद्दीन बोला, ‘मैं सूएखाकान के हाथों अपनी पत्नी को नहीं बेचूंगा।’ सूएखाकान सारी बातें सुन रहा था। सुएखाकन को नूरुद्दीन का ऐसा कहना अपना अपमान लगा। वह नूरुद्दीन के सामने गया और उसे खूब खरी-खोटी सुनाने लगा। देखते ही देखते दोनों में जंग छिड़ गई। आसपास के सभी लोग रूक कर दोनों के बीच की लड़ाई देखने लगे। नूरुद्दीन जवान होने के कारण बूढ़े सूएखाकान पर भारी पड़ गया और उसे खूब मारा-पीटा। सुएखाकान के शरीर पर कई चोटें आई थीं, जिनसे खून बह रहा था।

सूएखाकान के बेजान होने पर नूरुद्दीन हुस्न अफरोज को लेकर वहां से घर की ओर निकल गया। वहीं सूएखाकान खून, मिट्टी में लथपथ हुआ महल लौटा। उसे इस हाल में देख हाकिम जुबैनी ने उसकी इस दशा का कारण पूछा। सूएखाकान ने हाथ जोड़ लिए और बोला मंत्री खाकान के पुत्र ने मेरी यह दशा की है। सूएखाकान ने हाकिम जुबैनी को सारी बात बताई। साथ ही यह भी बताया कि वह वहीं दासी थी, जिसे खाकान ने आपके दिए पैसों से खरीदा था और आपसे झूठ बोलकर कि वह दासी आपके लायक नहीं है, उसे अपने बेटे को सौंप दिया था।

सूएखाकान के मुंह से सच्चाई सामने आने पर हाकिम गुस्से से भर गया। उसने सिपाहियों को बुलवाया और कहा ‘जाकर उस दासी को यहां लेकर आओ।’ वहां मौजूद एक सिपाही नूरुद्दीन के पिता खाकान का काफी खास था। इसलिए वह इस बात की सूचना देने चुपके से नूरुद्दीन के पास पहुंच गया। उसने नूरुद्दीन को उसे चालीस अशर्फियां देते हुए कहा, ‘तुम दासी को लेकर यहां से कहीं दूर चले जाओ वरना हाकिम तुम दोनों को मरवा देगा।’

नूरुद्दीन की ओर से कारण पूछने पर सिपाही ने उसे पूरी बात बताई। सारी बात जानने के बाद नूरुद्दीन डर गया। वह फौरन हुस्न अफरोज के साथ मकान छोड़कर वहां से भाग निकला। उसने देखा कि समुद्र तट पर एक जहाज निकलने को तौयार है तो वह भी बिना देर किए हुस्न अफरोज के साथ जहाज पर सवार हो गया। ऐसे में जब हाकिम के सिपाहियों का काफिला नूरुद्दीन के घर पहुंचा तो उन्हें वहां कोई भी नहीं मिला। नूरुद्दीन और उसकी पत्नी को वहां न पाकर सिपाही वापस लौट गए और हाकिम को सारी बात बताई।

वहीं नूरुद्दीन जहाज पर बैठकर बगदाद पहुंच गया, जो कि बेहद सुंदर नगर था। सफर के बाद दोनों इतने थके हुए थे कि एक बाग में जाकर आराम करने लगे। यह बाग खलीफा हारूं रशीद का था। खलीफा रात में यहां सैर के लिए आया करता था। इसलिए हर रात बाग में मोमबत्तियों की सजावट की जाती थी। उसमें एक विशाल बारहदरी थी, जिसमें अस्सी द्वार थे। यह इतनी ऊंची थी कि उसके छत पर होने वाली रोशनी सारे नगर में दिखाई देती थी। इस बाग के लिए एक रक्षक भी नियुक्त था, जिसका नाम शेख इब्राहिम था।

उस दिन शाम के समय शेख इब्राहिम बाग में आया तो देखा कि दो लोग चादर ताने सो रहे हैं। उसे बड़ा क्रोध आया। वह उनके करीब गया और उन्हें छूकर जगाया। इब्राहिम ने उनसे पूछा,‘वे कौन हैं और यहां कैसे पहुंचे?’ नूरुद्दीन घबरा कर उठा और बोला, ‘हम परदेसी हैं। यहां किसी को नहीं जानते। रात भर यहां रहने की अनुमति दे दें। सुबह होते ही हम यहां से चले जाएंगे।’ हुस्न अफरोज हाथ जोड़े सारी बातें सुन रही थी।

इब्राहिम को वो लोग सभी और भले लगे, इसलिए उसने उन्हें वहां रात गुजरने की अनुमती दे दी। उसने कहा, ‘रात भर खुले में आप दोनों कैसे रहेंगे? हमारे साथ चलिए। मैं आपको ऐसी जगह ठहराता हूं, जहां आप आराम के साथ-साथ बाग की सैर भी कर सकेंगे।’

नूरुद्दीन और हुस्न अफरोज ने इब्राहिम की मान ली और उसके साथ चल दिए। इब्राहिम ने दारोगा से कह कर उनके लिए स्वादिष्ट खाने का इंतजाम करवाया और वहां से चला गया। कुछ देर बाद दारोगा खाना लेकर आया। नूरुद्दीन और हुस्न अफरोज ने भोजन किया। उन्होंने दारोगा से भी भोजन करने का आग्रह किया। सभी ने मिलकर स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया और फिर तीनों बाग में टहलने लगे। तभी नूरुद्दीन को शराब पीने की इच्छा हुई। उसने दारोगा से इंतजाम करने का आग्रह किया। दारोगा ने बताया कि वह शराब नहीं पीता है, लेकिन वह नूरुद्दीन और हुस्न अफरोज के लिए शराब का बंदोबस्त कर देगा।

दारोगा घोड़े पर सवार होकर निकल गया और कुछ देर बाद मदिरा लेकर लौटा। नूरुद्दीन बेसब्री से दारोगा का इंतजार कर रहा था। जैसे ही दारोगा बाग में पहुंचा नूरुद्दीन ने उसके हाथ से मदिरा ले ली और गिलास में शराब निकालने लगा। दारोगा उनसे दूर जाकर बैठ गया ताकि नूरुद्दीन उसे मदिरापान के लिए न कहे। हुस्न अफरोज और नूरुद्दीन ने साथ में शराब का आनंद लिया और आपस में बात करते-करते गुनगुनाने लगे। नूरुद्दीन ने दारोगा से कई बार साथ आकर बैठने और आनंद में शामिल होने का आग्रह किया, लेकिन उसने मना कर दिया।

हुस्न अफरोज ने नूरुद्दीन से कहा, ‘अगर आप कहें तो मैं इस बूढ़े को शराब पिला दूं?’ नूरुद्दीन बोला, ‘क्या तुम सच में ऐसा कर सकती हो?’ हुस्न अफरोज बोली, ‘जी, बिल्कुल। बस आप नशे में होने का ढोंग कीजिए और बिस्तर पर जाकर लेट जाइए।’ नूरुद्दीन उसकी बात मान गया और ठीक वैसा ही किया जैसा हुस्न अफरोज ने कहा था।

नूरुद्दीन के बिस्तर में जाते ही हुस्न अफरोज दारोगा से बोली, ‘यह इनकी हमेशा की आदत है। नशा चढ़ते ही यह गहरी नींद में सो जाते हैं और फिर मैं अकेली रह जाती हूं। आप कृप्या मेरे करीब आकर बैठ जाएं, मुझे डर लगता है।’

बूढ़ा दारोगा उसकी बात मान गया और उसके पास आकर बैठ गया। हुस्न अफरोज ने शराब का एक गिलास दारोगा की ओर बढ़ाया। दारोगा ने मना कर दिया। तभी हुस्न अफरोज बोली, ‘देखिए आपको मेरी कसम है, आप एक गिलास पीजिए। यह पाप मैं अपने सिर ले लूंगी।’ इतना कहते ही उसने गिलास बूढ़े दरोगा के मुंह में लगा दिया। हुस्न अफरोज बहुत खूबसूरत थी। इस वजह से दरोगा भी उससे काफी आकर्षित था और वह शराब के लिए हुस्न अफरोज को मना नहीं कर पाया। उसने शराब का गिलास हाथ में थामा और एक घूंट में पूरा गिलास खाली कर दिया। अब हुस्न अफरोज ने दूसरा गिलास उसकी ओर बढ़ाया। दारोगा ने वह भी पी लिया और नशे में आकर वह भी नाचने-गाने लगा।

नूरुद्दीन यह सब देख रहा था। थोड़ी देर बाद वह उठा और दारोगा को चिढ़ाने लगा। दारोगा नशे में था, इसलिए वह पहले थोड़ा झेंप गया। फिर बाद में सभी एक साथ नाचने और गाने लगे। रात ज्यादा होने की वजह से अधेरा काफी हो गया था। इस पर हुस्न अफरोज दारोगा से बोली, ‘आपकी आज्ञा हो तो मोमबत्तियां जला दूं?’ बूढ़े ने कहा, ‘ठीक है जला दीजिए, लेकिन केवल दो-चार ही जलाना।’ हुस्न अफरोज ने देखते ही देखते वहां लगी सारी मोमबत्तियां जला दीं।

खलीफा हारूं रशीद उस रोज देर रात तक कामकाज में लगा रहा। जब वह काम करके उठा तो कुछ देर टहलने के लिए बाग पहुंच गया। वहां पहले से ही सारे शमादान जले हुए थे। यह देख उसे कुछ समझ नहीं आया। उसने अपने मंत्री जाफर को साथ लिया और सच्चाई का पता लगाने के लिए आगे बढ़कर बारहदरी पर चढ़ गया। वहां से उसने जो कुछ देखा, उसे देख खलीफा को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ। दारोगा सुंदरी के ईर्द-गिर्द झूम रहा था। नाच-गाने का सिलसिला जारी था।

खलीफा को आश्चर्य हुआ। उसे समझ नहीं आ रहा था कि दारोगा ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। तभी दरोगा ने हुस्न अफरोज से गाना गाने के लिए कहा। खलीफा ने सोचा, ‘अगर सुंदरी ने अच्छा गाया तो मैं उसे और उसके साथी को क्षमा कर दूंगा, लेकिन दारोगा को तो उसकी गलती की सजा जरूर मिलेगी। तभी हुस्न अफरोज ने गाना शुरू किया। उसका गायन सुन खलीफा प्रभावित हुआ। उसकी इच्छा हुई कि वह पास जाकर सुंदरी को गाते हुए सुने। उसने यह इच्छा मंत्री को बताई।

खलीफा की इच्छा सुनकर मंत्री बोला, ‘अगर आप वहां गए तो दारोगा आपको पहचान लेगा और डर में ही मर जाएगा।’ कुछ देर सोच कर खलीफा बोला, ‘तुम्हारी बात ठीक है। ऐसा करो तुम यही ठहरो मैं कुछ देर में आता हूं।’

मंत्री खलीफा की बात मानकर वहीं रुक गया और खलीफा तेजी से बाग के बाहर चला गया। वहां उसने देखा कि एक मछुआरा बड़ी-बड़ी मछलियां लेकर वहां से गुजर रहा है। खलीफा ने उसे रोका और कहा, ‘तुम मुझे अपने वस्त्र दे दो। साथ ही दो मछलियां भी दे दो।’ मछुआरा खलीफा को पहचान गया और झट से उसकी बात मान ली। खलीफा ने मछुआरे के कपड़े पहने और दो मछलियां लेकर बाग में आया।

मछुवारे के कपड़ों में मंत्री खलीफा को पहचान नहीं पाया। उसे लगा कि अंजान आदमी भिक्षा मांगने आया है। उसने फटकार लगाई, इस पर खलीफा खिलखिला कर हंस पड़ा। मंत्री को आश्चर्य हुआ, उसने गौर से देखा तो खलीफा को पहचान गया और उसके पैरों पर गिर पड़ा। वह माफी मांगने लगा। खलीफा ने उसे क्षमा किया और बोला, ‘जब तुम मुझे इस रूप में नहीं पहचान पाए तो कोई और क्या पहचानेगा?’

खलीफा मछुआरे के वेश में बारहदरी की छत पर पहुंच गया और दरवाजा खटखटाया। दारोगा ने जैसे ही दरवाजा खोला मछुआरा उसके पैरों में गिर पड़ा और बोला, ‘मैं करीम मछवारा हूं। दो उत्तम मछलियां लाया हूं। आप अपने दोस्तों को इसकी दावत दे सकते हैं।’ दारोगा को मछलियां पसंद आई। हुस्न अफरोज ने भुनी हुई मछलियां खाने की इच्छा जताई। दारोगा ने हुक्म दिया कि फौरन इन मछलियों को भुनवा कर पेश किया जाए।

कुछ देर बाद भुनी मछलियों को थाली में सजाकर परोसा गया। साथ में नींबू और सलाद भी दिया गया। तीनों ने मछलियों का भरपूर आनंद लिया। नूरुद्दीन बहुत खुश था। उसने मछुआरे को कुछ अशर्फियां दी और कहा मेरे पास जो था, वह मैंने तुम्हें दे दिया। खलीफा ने अशर्फियां गिनी तो उसमें चौबीस अशर्फियां थी। उसने सोचा यह कैसा इंसान है, दो मछलियों के बदले चौबीस अशर्फियां दे रहा है। उसने कुछ कहा नहीं और अशर्फियां जेब में रख ली। नूरुद्दीन मछुआरे पर इतना प्रसन्न था कि उसकी तारीफ करते नहीं थक रहा था। तभी मौका पाकर मछुआरे के वेश में आए खलीफा ने गीत सुनने की इच्छा प्रकट की।

नूरुद्दीन झट से राजी हो गया। उसने कहा, ‘तुमने इतनी स्वादिष्ट मछलियां हमें खिलाई उसके बदले हम तुम्हें गीत जरूर सुनाएंगे।’ हुस्न अफरोज ने गीत शुरू किया। खलीफा मंत्रमुग्ध रह गया। उसने इतना सुरीला गीत कभी नहीं सुना था। वह हुस्न अफरोज की खूब तारीफ कर रहा था। उसने कहा, ‘मैंने अपने पूरे जीवन में इससे अच्छा गीत नहीं सुना। यह सुंदरी हर गुण से पूर्ण है। आप धन्य हैं, जो आपको इतनी सुंदर और गुणी साथी मिली।’

नूरुद्दीन की आदत थी कि अगर कोई उसकी किसी चीज की बेहद तारीफ करता था तो वह उस चीज को तारीफ करने वाले को दे देता था। उसने मुछआरे के वेश में आए खलीफा से कहा, ‘तुम्हें यह स्त्री पसंद है तो तुम इसे ले जाओ। तुम भले मानस जान पड़ते हो। इस स्त्री की कद्र करोगे।’ नूरुद्दीन की बात सुनकर हुस्न अफरोज की आंखों में आंसू आ गए। उसने मछुआरे के साथ न जाने की इच्छा जताई।

हुस्न अफरोज की बात सुनकर खलीफा आश्चर्य से बोला, ‘मुझे नहीं पता था कि यह स्त्री आपकी दासी है। मुझे क्षमा करें।’ नूरुद्दीन बोला, ‘यदि आप हमारी पूरी कहानी सुनेंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे।’ उसने सारा किस्सा सुनाया। मछुआरे का वेश बनाकर आए खलीफा ने कहा, ‘अब आप आगे क्या करेंगे? कहां जाएंगे?’ मछुवारा बोला, ‘आप वापस बसरा चले जाएं। मैं वहां के हाकिम को पत्र लिख देता हूं। जिससे आपके सारे दुख दूर हो जाएंगे।’

नूरुद्दीन हंस पड़ा और बोला, ‘तुम मजाक कर रहे हो क्या? भला हाकिम आपकी बात पर ध्यान क्यों देगा?’ खलीफा ने कहा, ‘वह मेरे बचपन का साथी है। कई बार उसने मुझे बुलावा भेजा है, लेकिन मैं नहीं गया।’ नूरुद्दीन को उसकी बात पर विश्वास हो गया। खलीफा ने कागज, कलम उठाया और पत्र लिखना शुरू किया।

मछुवारे के भेष में आए खलीफा नें पात्र में लिखा, ‘मैं मेहंदी का पुत्र खलीफा हारूं रशीद अपने चचेरे भाई जुबैनी जो बसरा का हाकिम है। उसे यह आदेश देता हूं कि मंत्री खाकान के पुत्र नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम नियुक्त करें। ध्यान रहे, मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन न हो।’ खलीफा ने पत्र में चुपके से मुहर लगा दी और पत्र नूरुद्दीन को दे दिया।

इधर बूढ़ा दारोगा नशे में धुत सब देख रहा था। नूरुद्दीन के जाने के बाद हुस्न अफरोज रोए जा रही थी। कुछ देर बाद दारोगा उठा और बोला, ‘मछुआरे तेरी किस्मत तो बड़ी अच्छी निकली। अशर्फियों के साथ-साथ इतनी सुंदर दासी भी तुझे मिल गई। इसमें से मुझे भी हिस्सा दें।’ खलीफा बोला, ‘मैं तुझे सारी अशर्फियां दे दूंगा, लेकिन तू सुंदरी को पाने की आस छोड़ दे।’

दारोगा खीझ गया और पास रखी प्लेट उठाकर खलीफा की तरफ फेंक दी। खलीफा बाल-बाल बचा। उसे क्रोध आ गया। उसने अपने मंत्री को बुलाया। दारोगा घबरा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वहां हो क्या रहा है?

देखते ही देखते बारहदरी में छोटा दरबार लग गया। मछुआरे का वेश धरे खलीफा ने राजसी वस्त्र और आभूषण पहने और सिंहासन पर आकर बैठ गया। बूढ़ा समझ चुका था कि खलीफा ने ही मछुआरे का वेश धारण किया था। उसके पांव तले जमीन खिसक गई। वह खलीफा के पैरों में गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए माफी मांगने लगा। वह रोने-गिड़गिड़ाने लगा। खलीफा बोला, ‘तुमने आज जो किया उसके लिए तुम्हारे सालों के अच्छे आचरण को नहीं भुलाया जा सकता। आज तुम नशे में थे, इसलिए तुमने ऐसा व्यवहार किया। मैं तुम्हारा अपराध क्षमा करता हूं।’

हुस्न अफरोज किनारे खड़ी होकर सब कुछ देख रही थी। वह समझ चुकी थी कि वहां कोई मछुआरा नहीं है। नूरुद्दीन ने खलीफा के हाथ में उसे सौंपा है। हुस्न अफरोज को सहमा देख खलीफा बोला, ‘अब तो तुम जान चुकी हो कि मैं कौन हूं? सच कहूं तो मैंने सारे संसार में नूरुद्दीन जैसा दिलवाला नहीं देखा। वह केवल प्रशंसा मात्र करने भर से ही अपनी सबसे प्यारी चीज दे डालता है। उसकी यह अदा मुझे भा गई है। इसलिए मैंने उसे बसरा का हाकिम बनाने का आदेश दिया है। जब वह अपना राज-पाठ संभाल लेगा तो मैं तुम्हें भी उसके पास भेज दूंगा। तब तक तुम मेरे महल में रहो।’ ये सुनते ही हुस्न अफरोज की फिर से खुश हो गई और उसने चैन की सांस ली।

खलीफा उसे लेकर महल में आ गया और अपनी पत्नी से मिलवाया। इधर नूरुद्दीन जहाज में बैठकर बसरा पहुंचा। यहां पहुंचते ही वह सीधे हाकिम के दरबार में जा पहुंचा। उस समय हाकिम अपने दरबार में कुछ अहम् फैसलों पर बात कर रहा था। नूरुद्दीन ने बेधड़क उसके सामने जाकर कहा, ‘आपके मित्र का पत्र लाया हूं।’ जुबैनी ने खलीफा का हस्तलिखित पत्र देखा और वह भावुक हो गया। उसने पत्र को चूमा और मंत्री सूएखाकान से उसे पढ़ने के लिए कहा।

मंत्री सूएखाकान ने पत्र देखा तो पैरों टेल जमीन खिसक गई। उसने रोशनी की कमी का बहाना बनाया और दूर कोने में चला गया। वहां जाकर उसने खलीफा की मुहरवाला हिस्सा फाड़ दिया। वापस लौट कर तो उसने कहा कि इस पत्र में खलीफा ने नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम बनाने की बात की है, लेकिन यह पत्र नकली लगता है। उसने जुबैनी को भड़काया और नूरुद्दीन के खिलाफ उकसाया। जुबैनी सूएखाकान के बहकावे में आ गया और नूरुद्दीन को सूएखाकान के हवाले कर दिया।

सूएखाकान नूरुद्दीन को लेकर अपने भवन में आया। वह उसे मार डालना चाहता था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता था। इसलिए उसने नौकरों से कह कर नूरुद्दीन को खूब पिटवाया। नूरुद्दीन को इस कदर पीटा गया कि वह बेहोश हो गया। नूरुद्दीन को अधमरा पाकर सिपाहियों ने उसे कड़े पहरे के बीच एक तंग कोठरी में बंद कर दिया। घंटों बाद, जब नूरुद्दीन को होश आया तो उसने खुद को कैद में बंद पाया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?

नूरुद्दीन मन ही मन सोचने लगा कि आखिर मछुआरे ने पत्र में ऐसा क्या लिखा था, जो बसरा में उसके साथ ऐसा बर्ताव किया गया। रो-रोकर वह मन ही मन मछुआरे को कोसने लगा। सूएखाकान ने लगभग छह दिनों तक नूरुद्दीन को ऐसे ही कष्ट में रखा। वह इस फिराक में था कि नूरुद्दीन के प्राण चले जाए किंतु ऐसा न हुआ। अंत में सूएखाकान ने सोचा कि क्यूं न नूरुद्दीन को हाकिम जुबैनी के हाथों मृत्युदंड दिलाया जाए। इस मंशा से उसने एक चाल चली।

सूएखाकान ने जुबैनी के दरबार में खूब सारे तोहफे, कीमती टोकरियां पेश कीं। वजह पूछने पर सूएखाकान ने जुबैनी से कहा कि ये सब बसरा के नए हाकिम ने आपके लिए भेजा है। इस पर जुबैनी आग बबूला हो गया। उसने तिलमिला कर कहा, ‘वह अब तक जिंदा है? उसे मार डालो।’ सूएखाकान ने कहा, ‘आपकी आज्ञा सिर आंखों पर हाकिम।’ जुबैनी ने कहा, ‘कल नूरुद्दीन को पेश किया जाए। भरी सभा के बीच उसकी गर्दन काटी जाएगी।

सूएखाकान मन ही मन बहुत खुश हो रहा था। अगले दिन नूरुद्दीन को पेश किया गया। उसने भरी सभा में कहा, ‘तू मुझ निर्दोष को झूठ और छल से मरवा रहा है, लेकिन याद रखना भगवान तुझे कभी माफ नहीं करेगा।’ इस सूएखाकान गुस्से में बोला, ‘भरी सभा में तू मेरा अपमान कर रहा है, लेकिन आज तुझे मैं नहीं बल्कि हाकिम सजा देंगे।’ मरने से पहले नूरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी आखिरी इच्छा है कि मैं मरने से पहले पानी पीना चाहता हूं।’ नूरुद्दीन के लिए पानी मंगवाया गया।
मौत में देरी होने पर सूएखाकान जल्लाद पर बिफर पड़ा। जल्लाद सहम गया और तलवार निकाल ली। वह जैसे ही वार करने ही वाला था, जुबैनी ने महल की खिड़की से सिर निकाल कर कहा, इसे अभी मत मारो। एक बड़ी फौज आ रही है, पहले मालूम करने दो कि क्या मामला है। सूएखाकान जल्दी में था, उसने कहा हाकिम वे लोग इसकी मौत का तमाशा देखने आ रहे हैं। आप जल्द से जल्द इसे मौत दें।

दरअसल, हुस्न अफरोज को अपनी पत्नी के साथ और नूरुद्दीन को बसरा रवाना करके खलीफा नूरुद्दीन के बारे में बिलकुल भूल ही गया था। दो-चार दिनों बाद महल से विरह गीत की आवाज सुनकर खलीफा को मामला याद आया। तब खलीफा ने तुरंत अपने मंत्री जाफर को बुलवाया और कहा, ‘नूरुद्दीन के मामले में देरी नहीं होनी चाहिए। तुम फौज लेकर खुद जाओ और अगर सूएखाकान ने नूरुद्दीन को मरवा डाला हो तो तुम उसे भी तुरंत मार देना। वहीं अगर नूरुद्दीन जिंदा हो तो तुरंत उसे और जुबैनी को मेरे पास लेकर आओ।’ खलीफा ने इस संबंध में फरमान लिख दिया।

जब खलीफा का फरमान लेकर जाफर बसरा पहुंचा तो उसने फौरन नूरुद्दीन को आजाद कराया। उस रोज जाफर वहीं रूका। दूसरे दिन वह नूरुद्दीन के साथ जुबैनी और सूएखाकान को बंदी बनाकर बगदाद की ओर चल पड़ा। वहां पहुंचने पर उसने सारी कहानी सुनाई। खलीफा ने कहा, ‘नूरुद्दीन तुम पर भगवान की आपार कृपा है। जाफर के पहुंचने में तनिक भी देरी होती तो तुम मारे जाते।’ नूरुद्दीन ने खलीफा के सामने भूमि को चूमा और कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह मेरा पुराना शत्रु है। यह बहुत बड़ा पापी है, लेकिन मैं इसकी जान नहीं लेना चाहता हूं।

खलीफा ने मुस्कुरा कर कहा, ‘तुम सचमुच बड़े भले आदमी हो।’ यह कह कर उसने जल्लाद को इशारा किया और जल्लाद ने तुरंत सूएखाकान का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। वहीं नूरुद्दीन बसरा का हाकिम बनाने वाली बात पर बोला, ‘सरकार आपकी बड़ी कृपा है, लेकिन मैं उस शहर में वापस नहीं जाना चाहता। मुझे अपने चरणों में ही रहने की अनुमति दीजिए।’ खलीफा ने उसकी बात मान ली। उसे अपना दरबारी बनाया और एक बड़ी जागीर और रहने के लिए विशाल भवन दे दिया।

खलीफा जुबैनी से नाराज था कि उसने उसकी पहली आज्ञा क्यों नहीं मानी। किंतु जाफर ने उसकी सिफारिश की और कहा कि इसी ने अंत समय में नूरुद्दीन की हत्या रुकवाई। जाफर की इस बात पर खलीफा ने जुबैनी को माफ कर दिया और हाकिम का पद भी वापस दे दिया।

कहानी खत्म होने पर दुनियाजाद ने शहरजाद से कहा, ‘वाकई में यह बहुत ही बढ़िया कहानी थी। तुम्हें तो बहुत अच्छी कहानियां आती हैं। कोई और कहानी हो तो सुनाओ।’ बादशाह शहरयार ने भी हां में सिर हिलाते हुए कहानी सुनाने का आग्रह किया। फिर शहजाद ने एक नई कहानी कहना शुरू की।

 

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